Tuesday, 24 April 2012

deshbandhu main prakashit mera aaj ka coloumn


Deshbandhu mein aaj prakashit mera colunm'मैंने उससे कहा मुझे रस्सी चाहिए'', उसने कहा- ''ले लो, जितनी तुम्हारी मर्जी'', फिर मैंने कहा- ''बाल्टी'', उसने कहा- ''वह भी उठा लो जितनी बड़ी तुम उठा सकते हो'', मैंने जिस्म के इर्द-गिर्द रस्सी लपेटी बाल्टी को सिर पर रखा और रेगिस्तान में एक अंधे कुएं के पास तक चला गया, वह भी मेरे पीछे-पीछे था, मैंने पलटकर उससे कहा- 'पानी' तो वह तपाक से बोला- ''पानी तो मैं नहीं दे सकता, बल्कि जो तुम्हारे पास है, वह भी मेरा है इस रस्सी और बाल्टी के एवज में'' - क्या कविता की यह पंक्तियां एक तरह से निराशा की तरफ संकेत नहीं करतीं कि हम जहां खडे हैं वहां अनिश्चितता का एक दुर्गम वातावरण हैं, जिसमें हमें यह पता नहीं कि पानी कहां है और अगर है तो कितनी गहराई तक है। हमारे पीछे जो एक आदमी खड़ा है, उसने कहने को तो रस्सी और बाल्टी हमारे हवाले कर दिए हैं पर पानी का जखीरा उसके ही नियंत्रण में है और वह बड़े रहस्यमयी ढंग से खतरनाक मुद्रा में है। आज के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पर एक नार डालें तो यह समझ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है कि सत्ता के सूत्र किसके हाथों में है। रेगिस्तान का अंधा कुंआ हमारे सामने है पर उसमें कितना पानी है और किस गहराई तक है, इसका अनुमान किसी को नहीं है, सब एक दूसरे की तरफ अपनी-अपनी उंगलियों से संकेत ारूर करते हैं कि -शायद तुम को पता हो? सच बात तो यह है कि अब हमारा किसी के साथ अंतरंग रिश्ता नहीं रह गया है। जो रिश्ता है- वह अंधे कुएं तक पहुंच पाने की होड़ का है। अंधे कुएं का अर्थ शायद 'ग्लोब' और उसमें जमे हुए पानी का अर्थ 'पूंजी' हो सकता है। जब मानवीय रिश्तों की महक खत्म होने को होती है तो हम उसे वस्तुओं में खोजने लगते हैं। धीरे-धीरे वस्तएं हमारे लिए इतनी अहम् हो जाती हैं कि हमारे अंर्तसंबंधों के सारे अर्थ, वस्तुओं पर ही आकर टिक जाते हैं। कुछ-कुछ इसी मन:स्थिति में पूरा समाज घिरता चला जा रहा है। बेहद तटस्थ और यथार्थपरक तरीके से देखने पर भी ऐसा लगता है कि अभी हम विचारों के उर्वर प्रदेश से काफी पीछे हैं। वह रस्सी जो हमें अपने पैरों की ताकत से ज्यादा मुहैया करा दी गई हैं, उसे बार-बार खोलने और बांधने में अपनी ऊर्जा हम स्वयं ही नष्ट कर रहे हैं, क्योंकि पानी पर हमारा अधिकार नहीं है।
अभी दो दिन पहले छत्तीसगढ़ में सुकमा जिले के जिला कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का नक्सलवादियों द्वारा अपहरण कर लिया गया। इस त्रासद घटना में उनके दो अंगरक्षक और एक अन्य ग्रामीण मारे गए। नक्सलवाद पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कुछ नया कह पाने की गुंजाईश मेरे पास कम है। फिर भी यह कहना ारूरी होगा कि समाज में अन्याय, असंतुलन और आदिवासी तथा अन्य पिछड़े समाजों के विभिन्न वगोर्ें के साथ अपनाई जाने वाली भेदभावपूर्ण नीतियों के चलते नक्सलवाद ने अपने डैने फैलाए हैं। सुकमा के कलेक्टर के अपहरण या कुल मिलाकर नक्सलवाद के प्रश्न पर छत्तीसगढ़ के बुध्दिजीवियों का बड़ा वर्ग क्या सोचता है यह अभी तक सामने नहीं आया है। ऐसा लगता है कि इस संदर्भ में हम एक निर्जन प्रदेश में रह रहे हैं जहां संवेदनशीलता पत्थरों में तब्दील हो गई है। राजेश जोशी की एक कविता की पहली पंक्ति हैं- ''बच्चे काम पर जा रहे हैं'', ''यह हमारे समय का एक भयानक वाक्य है''- यह सच है। जहां तक मुझे स्मरण है यह कविता आज से कोई दस साल पहले लिखी गई थी। दस सालों में समाज की यह भयावहता क्या खत्म हुई है या कि और अधिक खतरनाक और सघन हुई है। अब समाचारों में यह सुनाई पड़ता है कि - ''पिछले तीन वर्षों में विदर्भ में दो लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली।'' मैं राजेश जोशी जैसे हमारे समय के बेहद संवेदनशील रचनाकारों से पूछना चाहता हूं कि अब आप क्या लिखेंगे? सच बात तो यह है कि जिस तरह कुएं के पानी का किसी को पता नहीं ठीक उसी तरह कलम की स्याही भी सूख रही है। मुझसे यह पूछा गया कि सुकमा कलेक्टर के अपहरण मामले पर छत्तीसगढ़ के बुध्दिजीवियों का 'स्टैण्ड' क्या है, तो सचमुच मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था क्योंकि मैं इसी बात से व्यथित था कि इस अपहरण के दुर्भाग्यजनक हादसे के दौरान जो तीन लोग मारे गए उनका नाम लेवा मुझे कहीं नंजर नहीं आ रहा था। इनमें से दो सुरक्षाप्रहरी थे जो कि डयूटी पर ही थे, और उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नक्सलवाद एक विचार है जो कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा को जायज ठहराता है। अब गोली का मुकाबला तो गोली से कर सकते हैं लेकिन जहां यह गोली विचार के साथ हो वहां बात संश्लिष्ट हो जाती है। नक्सलवाद का मुकाबला हमें विचार के साथ करना होगा, सिर्फ गोली के साथ यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। हिंसा के विरूध्द हिंसा तो उसी तरह है जैसे यह विचार कि-''अगर तुम मेरी आंखें निकाल दोगे तो मैं तुम्हारी आंखें निकाल दूंगा।'' यह विचार पूरे समाज को अंधा बनाने का विचार है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में दुखद तथ्य यह है कि यहां के बुध्दिजीवियों ने अपनी आवाज को न केवल खो दिया है बल्कि अब तो वे अपनी खुद की आवाज को ही नहीं पहचानते। कुछ मध्यमवर्ग छद्म बुध्दिजीवी यह कहते हुए ारूर पाए जाते हैं कि सेना लगाकर ''सारे नक्सलवादियों को गोली मार दो।'' उन्हें कौन समझाए कि यह समस्या का समाधान नहीं है। क्या कभी इस बात पर विचार किया गया है कि नक्सलवाद अपने डैने वहीं-वहीं पर क्यों फैलाता है जहां-जहां किसानों को उनकी भूमि से बेदखल करने की कोशिश की जा रही है या एक हद तक कर दिया गया है या फिर जहां-जहां सरकारी नीतियां बाहर से आए व्यापारियों और ठेकेदारों के हित में जाती हैं? क्या कभी आदिवासियों के चरित्र और स्वभाव को करीब से गहन संवेदनशीलता के साथ समझने के लिए किसी तरह के शोध कार्य किए गए हैं। आदिवासी उस शहरी मध्यवर्ग की तरह नहीं है जो दो पैसे झोली में डाल देने पर आपके सामने झुककर खडा हो जाता है और आप उसकी पीठ पर दो पैसे के एवज में अपना नाम लिख देते हैं। आदिवासी के पास अपनी लिपि और अपने रंग हैं जिनके साथ वह अपना गोदना स्वयं रचता है। इसलिए सरकार को और पूंजीपतियों को उनके साथ संवाद करने के लिए उनकी भाषा सीखनी होगी वर्ना सुकमा कलेक्टर के अपहरण जैसी दुखद घटनाएं होती रहेंगी। हम देख रहे हैं कि छत्तीसगढ़ का बुध्दिजीवी वर्ग आधिकारिक तौर पर न तो किसी सरकार के पक्ष में है और न ही नक्सलवादियों के। वह निरपेक्ष है और इस निरपेक्षता को एक तरह के अपराध की संज्ञा भी दी जा सकती है। छत्तीसगढ़ में संभवत: दर्जनभर से अधिक साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन हैं, इनमें से किसी एक का भी बयान नहीं आया कि- वे क्या सोचते हैं, या उन्हें क्या करना चाहिए। जो किसी के पक्ष में नहीं होता, उसका कोई पक्ष नहीं होता और यह स्थिति किसी भी समाज के लिए सर्वाधिक घातक होती है। यह उसी आदमी की तरह है जिसने खुद को लंबी रस्सी से बांध रखा है और जिसके हाथों में बड़ी सी बाल्टी है पर जिसे यह पता नहीं कि पानी का स्रोत कहां पर है।