Wednesday 23 November 2011

आज का मेरा ४ अंक (देशबंधु )




रघुवीर सहाय की एक छोटी कविता है, 'रूमाल', जो इस तरह है- ''वह मेरा रूमाल कहां है, कहां रह गया? कहीं मैं उसे छोड़ न आया हूं कुर्सी पर? वह कितना मैला था, उस से मैंने जूता, नाक, पसीना और कलम की निब पोंछी थी।''
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति  मार्कण्डेय काटजू की बात का संकेत भी इसी रूमाल और इसी निब की तरफ है। आज के परिप्रेक्ष्य में आप निब के साथ कैमरा इन एक्शन जोड़ सकते हैं।
न्यायमूर्ति काटजू इन दिनों मीडिया के कटघरे में हैं। होना इसके विपरीत चाहिए था। जब-जब भी भारतीय मीडिया के आचरण पर कोई टिप्पणी की जाती है पूरा मीडिया एक तरह की चीख पुकार और शोर में तब्दील हो जाता है और ''सेल्फ रेग्युलेशन'' अथवा स्वयंभू अनुशासन की बात कहने लगता है। यह सच है कि मीडिया पर अनुशासन थोपना किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक व्यवस्था में शुभ संकेत नहीं है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मीडिया को व्यापक समाज के प्रति गंभीर और जिम्मेदार होना चाहिए। दिक्कत यह है कि हमारे लगभग सभी बड़े मीडिया घराने उद्योगपतियों द्वारा संचालित हैं और ये उद्योगपति मीडिया की चादर लपेटकर अपने व्यापारिक हित साधने का काम करते हैं। समाज के व्यापक हित की चिंता उन्हें नहीं होती। अधिकतर मीडिया घरानों की राजनैतिक और वैचारिक प्रतिबध्दताएं तक नहीं है- जो राजनैतिक दल उनके नाम परमिट जारी कर दे, वे उसके पाले में जा बैठते हैं। वर्ष 1982 में भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के प्रोफेसर भुवनेश बंधोपाध्याय ने बताया था कि दुनिया भर का मीडिया, दुनिया के सिर्फ दस प्रतिशत लोगों के हाथ में है और वे ही यह तय करते हैं कि शेष नब्बे प्रतिशत जनता को क्या दिखाया जाए, और क्या नहीं। न्यायमूर्ति काटजू ने यही तो कहा कि हमारे इलेक्ट्रानिक चैनलों में समाज का अस्सी प्रतिशत हिस्सा उपेक्षित है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज और उसकी मुख्य चेतना का चेहरा तभी मुकम्मिल होता है जब उसमें हमारे आदिवासी समाज का चेहरा शामिल हो और फिर उसके बाद एक क्रम है, जिसमें दलित है, समाज के पिछड़े वर्गों के अन्य लोग हैं, धार्मिक अल्पसंख्यक हैं और स्त्री हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का पर्दा भारतीय नंजर नहीं आता। यह प्रभावशाली लोगों का माध्यम बन गया है। जो प्रभावशाली लोगों द्वारा ही संचालित है।
दूरदर्शन अपनी एक पक्षीय, ऊबाऊ और लगभग हास्यास्पद रिपोर्टिंग के कारण समाज द्वारा बहिष्कृत है। दूरदर्शन के अधिकारी दिल्ली में मंडी हाउस की ऊंची छत पर खड़े होकर रायसीना हिल्स में शास्त्री भवन की बैरकों से अपने लिए आदेश लेते हैं और स्वयं को दुनिया का सब से बड़ा मीडिया-विशेषज्ञ मानने के लिए अभिशप्त हैं। अपनी पीठ खुद ही लगातार थपथपाकर उनकी पीठ सूज आई है और हाथ टूटने की कगार पर हैं।
एक तरफ आस्था और संस्कार जैसे चैनल हैं जो आज के इस वैज्ञानिक चेतना के समय में दुनिया को माया से दूर रहने का संदेश दे दे कर खूब माया कमा रहे हैं और दूसरी ओर ए.एक्स.एन., ंजूम तथा वी.और एम. जैसे चैनल हैं जो दिखने को तो आस्था और संस्कार चैनलों से अलग दिशा में चलते हैं पर इनका उद्देश्य एक ही है, सिर्फ पैसा-कमाना और इन दोनों ही प्रजातियों के चैनलों का भारतीय श्रमिक वर्ग और भारत के आधुनिक चेतना सम्पन्न वर्ग के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। जिस तरह विश्व के विकसित देश, तीसरी दुनिया के देशों के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं, कुछ-कुछ वैसा ही व्यवहार देश के आर्थिक रूप से उच्च वर्ग द्वारा देश के मध्य व निम्न वर्ग के साथ किया जाता है। इसके लिए वे मीडिया का इस्तेमाल अपने हक में करते हैं। जबकि यह काम मीडिया की आधारमूल मूल्य संरचना के खिलाफ है। टेलीविंजन हमारे सामने जो परोस रहा है उसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच, आदमी तथा औरत के बीच अभिभावकों और बच्चाें के बीच, और भाईयों के बीच जो संबंध दिखाए जा रहे हैं उन सबका आधार व्यवसायिक है, मानवीय नहीं यही समस्या की जड़ है।
अधिकतर कथित पारिवारिक सीरियलों में स्त्री जाति के करवा-चौथी चेहरों को जिस सिंदूर, मंगलसूत्र, माथे पर बड़ी सी बिन्दी और जेवरों से लबरेंज देह में दिखाया जाता है, वह उन्हें वापिस पुरुष की गुलामी में धकेलने जैसा है। यह देश की उन हजारों-लाखों स्त्रियों का अपमान है जो किसी तरह पढ़-लिखकर या गांव-देहातों में, खेतों में शारीरिक श्रम करते हुए अपने पैरों पर खड़े होने का साहस दिखा रही हैं। क्या यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती कि किसी भी सीरियल में कोई भी मुख्य पात्र एक मोची नहीं है, बंजारा नहीं, दलित-स्त्री नहीं है, अल्प-संख्यक नहीं है, ठेले पर आलू-प्याज बेचने वाला नहीं है, घर में बर्तन-झाड़ू पोंछा करने वाली स्त्री नहीं है, पेट्रोल पंप में गाड़ियों में पेट्रोल डालने वाला लड़का नहीं है, बस का कंडक्टर नहीं है, किसी दफ्तर का चपरासी नहीं है, साईकिलों के टायरों की टयूब में पंक्चर लगाने वाला नहीं है। यह हमारा वास्तविक समाज है, जिसका कोई प्रतिनिधित्व हमें किसी चैनल पर नंजर नहीं आता। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इन चैनलों के जो नीति निर्धारक हैं, उनके भीतर 'द्रोणाचार्य माईन्ड सेट' काम करता है, जो समाज के एक बड़े वर्ग को नाकारा मान कर चलता है। हमारे सामाजिक मूल्यों में शारीरिक श्रम के काम को एक तरह की दोयम या हेय दृष्टि के साथ देखा जाता है, शायद इसीलिए हमारे टेलीविजन चैनल अपने पर्दे पर श्रमजीवियों को 'महानायक' का दर्जा नहीं देते जबकि मार्केटिंग जोकर या दलाल उनके आदर्श होते हैं।
भारतीय टेलीविंजन में सब कुछ बिकने के लिए है। एक-एक सेकेण्ड की अपनी कीमत है। सारा खेल बिक्री का है। न्यूज चैनल आने के बाद बिक्री का यह खेल तेज हो गया है। युवा मीडिया विशेषज्ञ वर्तिका नंदा के शब्दों में- ''आम आदमी जिस टेलीविान को अपने घर में बैठ कर देखता है। उसमें सपने, सच और भावनाएं सभी कुछ बिकाऊ है। राजनीति, सेक्स, अपराध, समलैंगिकता सभी शो-पीस की तरह सजे हैं और इन्हें नए पैकेज में ढालकर बार-बार पहिले से भी ऊंचे दाम पर बेच दिया जाता है।''
तो प्रश्न यह है कि न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अगर यह कहते हैं कि हमारे इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का एक सामाजिक दायित्व होना चाहिए और उन्हें देश के जन-सामान्य की उभरती हुई सामाजिक-वैज्ञानिक चेतना का एक हिस्सा बनना चाहिए तो, इसमें गलत क्या है? मीडिया का संचालन एक सामाजिक जिम्मेदारी है और इसे निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता। जो लोग-स्व-नियंत्रण की बात करते हैं उन्हें यह समझना होगा कि अगर देश की संसद, न्यायपालिका और प्रशासन नियमों और मूल्यों के एक दायरे में रहकर काम करने के लिए प्रतिबध्द हैं तो मीडिया को अछूता कैसे छोड़ा जा सकता है। स्व-अंकुश का एक अर्थ निरंकुश होना भी होता है।
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Wednesday 16 November 2011

आज का मेरा लेख (देशबंधु) ......



एक कविता की पंक्तियां हैं- ''वे सब चुप बैठे थेवे चुप बैठे रहने के लिए ही इकट्ठा हुए थेउन्होंने तय किया था कि वेएक-दूसरे के फटे-कपड़ों के बारे में बात नहीं करेंगे
 उन्होंने तय किया था कि वे एक दूसरे के खाने के बारे में बात नहीं करेंगेअपने-अपने घरों में वे चाहें कंकड़ खायें और चाहे खाएं कीड़ेवे एक दूसरे के सुख-दु:ख की बात की बात तो बिलकुल नहीं करेंगेवे सिर्फ भली और भोली बातें करेंगेऔर किसी को यह नहीं बताएंगे कि उनके दुख का जिम्मेवाररहस्यमयी व्यक्ति कौन हैऔर फिर अगली मुलाकात तक वे उसी व्यक्ति के साथ रहेंगे जिसके दांत नजर नहीं आते''
सार्क यानि की दक्षेस देशों का सम्मेलन पिछली दस और ग्यारह नवम्बर को मालद्वीव में सम्पन्न हो गया। सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ राज गिलानी को ''भला आदमी'' कहा और बदले में युसुफ राज गिलानी ने भी डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में कुछ अच्छे शब्द कहे। दोनों देशों की आंतरिक स्थिति को देखा जाए तो इन दोनों ही प्रधानमंत्रियों को, उनके इस कठिन समय के दौर में कुछ 'अच्छे' शब्दों की बेहद ारूरत थी। ''मैं तुझे भला कहूं और तू आखि मोय'' की मुद्रा में दो भले लोग अपने-अपने देश के संकटों में लौट आए।
दरअसल, इस उप-महाद्वीप के इतिहास के साथ यह एक विचित्र घटनाक्रम था। दिसम्बर 1985 में सार्क देशों के इस संगठन की स्थापना इस उम्मीद के साथ की गई थी कि इस क्षेत्र की करीब डेढ़ अरब जनता की आवांज को दुनिया में अधिक गंभीरता के साथ सुना जा सकेगा लेकिन इसकी जो पहली शर्त होती है दुर्भाग्य से उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वह यह कि उनकी आवाज का सुर और तर्क एक हो और अपने-अपने देश की व्यापक गरीब जनता के पक्ष में हो। होना यह चाहिए था कि सार्क के सभी देश मिलकर आपसी सामंजस्य से एक ऐसी आर्थिक नीति पर काम करते जिससे अमेरिका और यूरोपीय संघ पर उनकी निर्भरता कम होती। दुर्भाग्य से 1989 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और यह दुनिया एक तरफ झुक गई। संयुक्त राज्य अमेरिका हमारी दुनिया का अघोषित तानाशाह बन बैठा। उसका बाजार दुनिया भर में फैल गया। चीन, कोरिया, जापान आदि की प्रतिद्वंदिता के अलावा विश्व में उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं बचा। इन देशों के समर्पित लेकिन 'बंद' मीडिया ने अपने राष्ट्रों का साथ नहीं दिया। भारत में तो जो मीडिया के द्वार खुले तो ऐसा लगा कि जैसे अमेरिकी बाजार ही यहां आ कर बैठ गया विश्व लोन मेले में अपना बड़ा सा 'शो-रूम' ले कर। सार्क देशों की बैठक में होना यह चाहिए था कि हम अपनी संयुक्त अर्थनीति पर विचार करते और उसके क्रियान्वयन के आंतरिक तरीके ढूंढते। पर इन देशों की निगाहें अपने ऊपर कम और अपने पर्यवेक्षक राष्ट्रों पर अधिक टिकी रहती हैं। सार्क राष्ट्रों के पर्यवेक्षक देश हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीयन संघ के सदस्य राष्ट्र और दक्षिण कोरिया। यह दुखद है कि सार्क देशों का सम्मेलन अपना एक अलग आभिजात्य निर्मित करने का प्रयास भर है, जिसका न कोई उपयोग है और न ही किसी तरह की आवश्यकता। उनका औचित्य तो तब पूरा होगा जब वे एक साथ मिलकर अपने आंतरिक मामलों पर चर्चा करें और इस पूरे उप-महाद्वीप की गरीब जनता के सर्वांगीण विकास के लिए जिसमें अन्न के साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य भी शामिल हों, कोई कारगर रास्ता तलाश करने की कोशिश करें। फिलहाल तो इस सम्मेलन में एक तरह की पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव नार आता है।
श्रीलंका में जिस तरह तमिलों के नागरिक अधिकारों का हनन किया गया, पाकिस्तान द्वारा जिस तरह आतंकवाद को प्रश्रय दिया जा रहा है और भी बहुत सारे ऐसे मसले जिन पर गंभीरतापूर्वक सकारात्मक बातचीत होनी चाहिए, उन पर एक ठंडी बातचीत के साथ, इस तरह के सम्मेलन समाप्त हो जाते हैं और इन सभी सदस्य देशों की गरीब जनता के लाखों रुपए तीस्ता नदी में बह जाते हैं। सम्मेलन के तुरंत बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्र राजपक्षे का सुर बदल जाता है। वे कहते हैं कि चीन हमारा मित्र राष्ट्र है और हम आपसी सहयोग को बढ़ाएंगे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अपने देश में लौट कर सेना-प्रमुख कयानी से मिलते हैं। नेपाल सरकार की विदेश नीति अपने अंर्तविरोधों के चलते कभी इस पक्ष तो कभी उस पक्ष, झुकती हुई नंजर आती है।
यह त्रासद है कि इस पूरे सम्मेलन में पिछले कुछ समय में विश्व में घटित राजनैतिक उथल-पुथल का कोई 'नोटिस' नहीं लिया जाता। यह कहा जा सकता है कि मिस्र या लीबिया में जो हुआ वह उनका अपना आंतरिक मामला था, लेकिन विश्व-राजनीति से अछूते रहकर आप अपना अस्तित्व कैसे बनाए रख सकते हैं? कर्नल गद्दाफी के गोलियों से छलनी मृत शरीर का फोटो अपने आई-पैड पर देखकर खिलखिलाती हुई हिलेरी क्लिंटन का चेहरा मेरी दृष्टि में विश्व का सब से अश्लील चेहरा था। यह माना कि गद्दाफी लंबे समय तक अपनी जनता का विश्वास जीत कर एक क्रूर तानाशाह में बदल गए थे पर इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि एक लंबे समय तक वे अपने देश की अस्मिता की आवाा थे। पर हो यह रहा है कि अमेरीकी मीडिया जो कहता है उसे प्राथमिक शाला के विद्यार्थियों की तरह विकासशील राष्ट्रों का मीडिया जिनमें सार्क के देश भी शामिल हैं, पांचवी कक्षा के पाठ की तरह रटने लगता है।
यह न केवल दुखद है अपितु भयावह भी है, अगर आज इस प्रकृति पर अंकुश न लगाया गया तो आने वाले वर्षों में विश्व को और अधिक खतरनाक रास्तों से होकर गुजरना होगा। आतंकवाद के खतरे में अगर तेल की और पश्चिमी विकसित राष्ट्रों की कोई भूमिका हम नहीं देख सकते तो निश्चित ही यह हमारा दृष्टिदोष होगा। सार्क देशों की बैठक में, जिसकी अफगानिस्तान भी एक सदस्य राष्ट्र है, उसकी राजनैतिक व सामरिक स्थिति के बारे में कोई चर्चा न हो तो यह हमारी भूमिका को संदिग्ध बनाता है।
सिर्फ इस तरह अपनी बैठक खत्म कर देने से बात नहीं बनेगी कि 'जेंटलमैन द काफी वाज गुड।' हमें यह जान लेना चाहिए कि जेन्टलमैन पर्यवेक्षक शरीफ इंसान नहीं है और 'द टेस्ट ऑफ द काफी इज नॉट दैट गुड'। काफी का स्वाद अच्छा नहीं था।

Wednesday 9 November 2011

देशबंधु में प्रकाशित आज का मेरा लेख


प्रख्यात अमेरिकी पाप गायिका लेडी गागा ने पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा के बुध्द इंटरनेशनल सर्किट में हुई फार्मूला-वन कार रेस में जो गीत गाए
उनका आशय कुछ इस तरह था कि 'अपने हाथ ऊपर उठाओ, तुमने इस दुनिया में एक 'सुपरस्टार' की तरह जन्म लिया है और ईश्वर ने तुम्हें अपनी संपूर्णता में तैयार किया है'- सुनने में और पढ़ने में यह पंक्तियां मन को लुभाने वाली लगती हैं। यह आभास भी होता है कि आप डेल कार्नेगी या दीपक चोपड़ा की कोई किताब पढ़ रहे हैं। यह समय शब्दों के छल का समय है। शब्दों के एवज में आप धन कमा रहे हैं। यह वही लेडी गागा हैं जिन्होंने कुछ समय पहिले अपने जिस्म पर बकरे का मीट पहनकर मंच पर भड़कीले गीत गाए थे और लोग पागलपन में झूम उठे थे। लेडी गागा ने स्वयं एक दार्शनिक अंदांज में कहा है कि 'मैं पागलपन की सीमाओं को छू सकती हूं और एक साथ, एक ही समय में, एक सौ स्त्रियों का जीवन जी सकती हूं।' वही पागलपन हमारे देश की एक पूरी पीढ़ी के मन मस्तिष्क पर छा गया है। यह सवाल सिर्फ सांस्कृतिक मूल्यों का नहीं है, उससे आगे का है। संस्कृति के नाम पर पैसा कमाने और फिर लुटाने का गोरखधंधा है। एक ऐसे राज्य में जो कि अपनी गरीबी, अशिक्षा और शर्मनाक वर्ण-व्यवस्था के पोषकों के लिए जाना जाता है, दस अरब के खर्च से तैयार बुध्द इंटरनेशल सर्किट, जो कि गरीब किसानों से ली गई लगभग 875 एकड ज़मीन पर फैला है, में यह आयोजन किया गया जो कि नव-धनाढय वर्ग के अश्लील आभिजात्य प्रदर्शन से अधिक कुछ नहीं था। इसे स्थितियों की एक विडंबना ही कहा जाएगा कि जो लोग विजय मलैया अथवा सुब्रत राय के इस तरह के आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और इसे देश के लिए एक तरह का गौरव मानते हैं, वे ही लोग अन्ना हजारे के लिए रामलीला मैदान में भी पहुंच जाते हैं। हमारा मध्यवर्ग सब्जियों में आलू और प्याज की तरह हो गया है, उसका अपना कोई चरित्र नहीं है। मीडिया का अधिकांश हिस्सा भी उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है क्योंकि यह उसके व्यवसाय के साथ जुड़ा हुआ है। घृणा कोई बुरी चीज नहीं है अगर वह विजय मलैया या सुब्रत राय या शाहरूख खान की जीवन-पध्दति और उनके मूल्यों से की जाए। किसी भी देश के जीवन में जिस तरह प्रतिक्रियावादी ताकतों और सांप्रदायिक शक्तियों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए ठीक उसी तरह भ्रामक स्थितियों के लिए भी कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
एक तरह की विश्वसनीयता चाहे वह अपने राजनैतिक नेतृत्व से हो अथवा गैर-राजनीतिक सामाजिक संगठनों से, हमारा गरीब समाज उसे लगातार खोता चला जा रहा है। एक समय था कि बाबू जगजीवन राम देश के कृषि मंत्री थे। वे अगर सिर्फ दिल्ली के आकाश में बादल देखकर यह कह देते थे कि इस वर्ष मानसून अच्छा आएगा तो तमिलनाडु में कोयम्बटूर से लेकर, गुजरात में भुज और छत्तीसगढ़ में सरगुजा जिले के पटवारी और ग्राम सेवक तक उनकी बात पर भरोसा करते थे और किसानों को बताते थे कि इस वर्ष मानसून अच्छा आएगा। आज स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेकसिंह अहलुवालिया, चीख-चीख कर कह रहे हैं कि- ''हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है'' और हालत यह है कि उनके ''विश्वासी'' कहीं ढूंढे नहीं मिलते। कुछ अकादमिक अर्थशास्त्रियों और विश्व बैंक के कुछ अधिकारियों के अलावा और किसी को उनकी बात पर भरोसा नहीं होता। क्यों? संभवत: इसलिए कि प्रधानमंत्री के विकास के माडल की लोगों के दैनंदिन जीवन में कोई हिस्सेदारी नहीं है।
जब आम आदमी को अपनी जेब में अपना चेहरा छिपाने की जगह न मिल रही हो तो वह दूसरों की जेब में झांकना शुरू कर देता है। शायद वर्तमान पूंजीवादी अर्थतंत्र, जिसने समाजवाद और लोकतंत्र का मुखौटा पहन रखा है, यही चाहता है। इसी प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए फार्मूला वन जैसी कार-रेस प्रतियोगिताओं के आयोजन किए जाते हैं और लेडी गागा जैसी गोश्त का परिधान पहनी गायिकाओं को अमेरिका से बहन मायावती के राज्य तक, गौतमबुध्द नगर तक बुलवाया जाता है। पता नहीं बुध्द इस बार मुस्कुराएं होंगे या नहीं?
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पोषक हमारे राजनेता एक तो कुछ बोलते नहीं, एक रहस्यमयी चुप्पी अपने आस-पास घेरे रखते हैं और जब बोलते हैं तो वे खुद ही सुनते हैं और खुद ही समझते हैं। देश का आम आदमी उनकी भाषा को विश्वसनीय नहीं मानता और उन्हें कोई यह बताने वाला नहीं है कि उनकी यह बात, उन्हें कितनी भारी पड़ने वाली है। यह सेबेस्टियन वेटल की द्रुतगति से चलने वाली कार चलाते हुए कानों में ईयर फोन लगाकर लेडी गागा के गीत सुनने का समय नहीं है।
यह सच है कि प्रतिगामी शक्तियों की तरह अतीतजीवी नहीं होना चाहिए। बार-बार पीछे मुड़कर देखना अच्छी बात नहीं है। अपनी भाषा एवं संस्कृति पर बहुत गर्व होते हुए भी, स्थितप्रज्ञ हो जाना बुरा है और अंतत: बेहतर भविष्य ही हमारा ध्येय है, लेकिन यह बेहतर है क्या? और क्या यह बेहतर सिर्फ कुछ चुनिन्दा लोगों के लिए है? यह देखना और सबको साथ लेकर चलना यह हमारी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी है।
कई बार इस बात का धोखा होता है कि कहीं जहाँगीर के शासनकाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ उनकी शर्तों पर व्यापार का कोई दस्तावेज तो तैयार नहीं किया जा रहा है। देश में एक तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फार्मूला वन कार दौड़ प्रतियोगिता हो रही हो और देश के खेलमंत्री को उसके लिए आमंत्रण तक न भेजा जाए। क्या यह शर्मनाक नहीं है? सच बात तो यह है कि खेल मंत्रालय की अनुमति के बिना यह आयोजन हुआ कैसे? इससे पहले भी हमारे कुछ क्रिकेट खिलाड़ी इस तरह का मजाक कर चुके हैं कि वे राष्ट्रपति से पद्म पुरस्कार लेने नहीं पहुंच सके, क्योंकि वे 'भूल' गए थे। यह एक तरह की धृष्टता है और यह इसलिए आई है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपने आप को लोकतांत्रिक सरकार से ऊपर समझता है। यही धृष्टता हमारे अधिकांश अंग्रोी मीडिया, अखबार और इलेक्ट्रानिक चैनलों द्वारा भी की गई जब इस कार रेस के कवरेज में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती को पूरी तरह से ''ब्लैक-आऊट'' कर दिया गया। अपने आपको लोकतंत्र से ऊपर समझने की प्रवृत्ति कितनी खतरनाक हो सकती है, यह सोच कर डर लगता है। क्या यह अपने आप में अश्लील नहीं है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक आयोजकों को छै: लाख लीटर पेट्रोल सस्ती दरों पर उपलब्ध कराया गया।
अंत में आर्नेस्तो कार्देनाल की एक कविता की पंक्तियां याद आ रही है- ''समोजा नेसमोजा शहर केसमोजा गार्डन मेंसमोजा की प्रतिमा काअनावरण किया।''
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