Wednesday 21 December 2011

21 dec आज का मेरा अंक

एक कविता की पंक्तियां है- 'एक हाथ में महीन धागा है, दर्जी के पास, जिससे वह सिलता जाता है कुर्ते और निक्करें, और दूसरे हाथ में कैंची, वह कैंची से काटता है और फिर महीन धागे से सिलता है,
कपड़े, जो मनुष्य के जिस्म को ढंकते हैं, सलीके से, इस तरह वह आकार देता है कपड़ों को, मनुष्य को नंगा होने से बचाए रखने के लिए, और इस पवित्र काम में, धागा और कैंची दोनों ही उसके अस्त्र होते हैं'- किसी भी विचारशील समाज में बुध्दिजीवी की भूमिका एक दर्जी की तरह की होनी चाहिए। हार्वाड विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों भारत के एक व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक दल जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यिम स्वामी को अपने यहां के अध्यापकीय पैनल से बाहर निकाल दिया। उन पर यह कार्रवाई अपने एक लेख में इस्लाम धर्म पर और इस धर्म के अनुयायियों पर की गई विपरीत टिप्पणियों के कारण की गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बुध्दिजीवी वर्ग ने आम तौर पर हार्वाड विश्वविद्यालय के इस कदम की सराहना की। डॉ. सुब्रमण्यिम स्वामी ने सिर्फ इस्लाम के लिए ही आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष तथा कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति भी उनकी नागरिकता और उनके ईसाई होने को लेकर तरह-तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें करके बड़ी संख्या में युवाओं को भ्रमित किया है। उनका पूरा आचरण इस बात का पुख्ता सबूत है कि सिर्फ डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा, परिपक्व और समझदार नहीं हो जाता। हार्वाड विश्वविद्यालय का जहां तक सवाल है उन्होंने उचित ही किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ वर्ष और विगत की ओर चलें तो दोहरे मापदंडों का पता भी चलता है। करीब एक दशक पहले भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक सर विद्याधर नायपाल को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन पर यह आरोप है कि अपने चिंतन और लेखन में वे घोर साम्प्रदायिक हैं। 6 दिसम्बर 1992 में जब अयोध्या में बाबरी-मस्जिद का दुर्भाग्यजनक प्रकरण हुआ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन दो या तीन बुध्दिजीवियों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की प्रशंसा की सर विद्या उनमें प्रमुख थे। नायपाल ने कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण हिन्दुस्तान के पुर्नजागरण का प्रतीक है।'' नायपाल ने रोमिला थापर के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को महज मार्क्सवादी बताकर नकारते हुए कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण एक तरह का ऐतिहासिक प्रतिशोध है।'' यह एक तरह से आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद की सोच को ताकत देने वाली प्रतिक्रिया थी।
6 दिसम्बर 1992 के दिन जब सारी दुनिया का मीडिया उस त्रासद घटना को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक अशुभ संकेत बता रहा था। नायपाल ने टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि- 'वे लोग जिन्होंने मस्जिद की मीनारों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने का काम किया उनकी भावनाओं (पैशन) को समझने की जरूरत है।'
अयोध्या प्रकरण के कुछ ही वर्षों बाद नायपाल ने अपना विवादास्पद लेख लिखा था जिसमें इस्लाम को कट्टरवादी धर्म बताया गया था और इस उप-महाद्वीप में रहने वाले सभी इस्लाम धर्मानुयायियों को 'कन्वर्ट' कहा गया था। उसके तुरंत बाद ही उन्हें पश्चिमी ताकतों द्वारा साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता।
बी.एस.नायपाल की अधिकृत जीवनी लिखने वाले पैट्रिक फे्रंच की पुस्तक 'द वर्ल्ड इा व्हाट इट इा' में लिखी बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो नायपाल जब-जब भी भारत आए यहां के लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण कोई बहुत सम्मानजनक नहीं रहा। वे मुंबई और थाणे में दलित लेखकों के घर उनसे मिलने भी गए लेकिन वह एक अभिजात्य वर्ग के कुलीन लेखक का अपने से कमतर किसी लेखक के यहां जाना था जब कि शिवसेना के नेता बाला साहेब ठाकरे के लिए उनके मन में गहरा आदर का भाव था। यह एक और पक्ष है जो कि सर विद्या को आडवानी के करीब लाता है। लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री-माई लाईफ' में दो अन्य प्रखर बुध्दिजीवियों का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है, जिन्होंने अयोध्या प्रकरण में उन्हें खुला समर्थन दिया- वे हैं- नीराद सी. चौधरी और गिरिलाल जैन। 'आटोबायग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' के लेखक जो कि भूरे साहब के नाम से भी जाने जाते थे, नीराद सी. चौधरी निश्चित ही यूरोप में भारत की पहचान थे लेकिन वे आजीवन भारतीय जन-जीवन के प्रति अपनी घृणा के लिए जाने जाते रहे, इसलिए उनका अपने समर्थन में होना एक तरह से अपने विरोध में होना ही है। लगभग यही बात धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में गिरिलाल जैन पर लागू होती है। दिवंगत श्री जैन की सोच और उनकी विचारधारा किसी से छिपी हुई नहीं थी। श्री जैन ने भी अयोध्या-आन्दोलन को हिन्दू-पुर्नजागरण का एक अनिवार्य और ऐतिहासिक हिस्सा बनाया था।
सच तो यह है कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद के देश में हिन्दी क्षेत्र के तमाम समाचारपत्र और पत्रिकाएं अगर पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक समाचार-पत्रों और उनके संपादकों ने देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप का हवाला देते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की खुलकर निंदा की थी। कई बार लगता है कि हमारा मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र यूरोपियन राष्ट्रों की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है इसलिए वे हर तरह के हथकंडे हमारे ऊपर आजमाते हैं, यहां तक कि हमारे ही बुध्दिजीवियों को भी इन स्थितियों में एक समरस समाज में खलल पैदा करने की कोशिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। जापानी कवि मिशियो माडो की पंक्तियां क्या सचमुच सटीक नहीं लगतीं- ''कई बार मैं चकित हो जाता हूं कि, ऐसा क्यों नहीं हैयुग-युगांतर से, अरबों-खरबों साल से, हम धूप में रहते आए हैं, जो इतनी निर्मल हैहवा में सांस लेते आए हैं जो इतनी निर्मल हैपानी पीते आते आए हैं, जो इतना निर्मल है, तब क्यों, आखिर क्योंहम और काम हमारे,पहुंच नहीं पाते, कैसे भी निर्मलता तक।''
ttejinder.gagan@gmail.com

 
  

21 dec आज का मेरा अंक




एक कविता की पंक्तियां है- 'एक हाथ में महीन धागा है, दर्जी के पास, जिससे वह सिलता जाता है कुर्ते और निक्करें, और दूसरे हाथ में कैंची, वह कैंची से काटता है और फिर महीन धागे से सिलता है,
कपड़े, जो मनुष्य के जिस्म को ढंकते हैं, सलीके से, इस तरह वह आकार देता है कपड़ों को, मनुष्य को नंगा होने से बचाए रखने के लिए, और इस पवित्र काम में, धागा और कैंची दोनों ही उसके अस्त्र होते हैं'- किसी भी विचारशील समाज में बुध्दिजीवी की भूमिका एक दर्जी की तरह की होनी चाहिए। हार्वाड विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों भारत के एक व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक दल जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यिम स्वामी को अपने यहां के अध्यापकीय पैनल से बाहर निकाल दिया। उन पर यह कार्रवाई अपने एक लेख में इस्लाम धर्म पर और इस धर्म के अनुयायियों पर की गई विपरीत टिप्पणियों के कारण की गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बुध्दिजीवी वर्ग ने आम तौर पर हार्वाड विश्वविद्यालय के इस कदम की सराहना की। डॉ. सुब्रमण्यिम स्वामी ने सिर्फ इस्लाम के लिए ही आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष तथा कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति भी उनकी नागरिकता और उनके ईसाई होने को लेकर तरह-तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें करके बड़ी संख्या में युवाओं को भ्रमित किया है। उनका पूरा आचरण इस बात का पुख्ता सबूत है कि सिर्फ डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा, परिपक्व और समझदार नहीं हो जाता। हार्वाड विश्वविद्यालय का जहां तक सवाल है उन्होंने उचित ही किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ वर्ष और विगत की ओर चलें तो दोहरे मापदंडों का पता भी चलता है। करीब एक दशक पहले भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक सर विद्याधर नायपाल को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन पर यह आरोप है कि अपने चिंतन और लेखन में वे घोर साम्प्रदायिक हैं। 6 दिसम्बर 1992 में जब अयोध्या में बाबरी-मस्जिद का दुर्भाग्यजनक प्रकरण हुआ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन दो या तीन बुध्दिजीवियों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की प्रशंसा की सर विद्या उनमें प्रमुख थे। नायपाल ने कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण हिन्दुस्तान के पुर्नजागरण का प्रतीक है।'' नायपाल ने रोमिला थापर के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को महज मार्क्सवादी बताकर नकारते हुए कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण एक तरह का ऐतिहासिक प्रतिशोध है।'' यह एक तरह से आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद की सोच को ताकत देने वाली प्रतिक्रिया थी।
6 दिसम्बर 1992 के दिन जब सारी दुनिया का मीडिया उस त्रासद घटना को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक अशुभ संकेत बता रहा था। नायपाल ने टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि- 'वे लोग जिन्होंने मस्जिद की मीनारों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने का काम किया उनकी भावनाओं (पैशन) को समझने की जरूरत है।'
अयोध्या प्रकरण के कुछ ही वर्षों बाद नायपाल ने अपना विवादास्पद लेख लिखा था जिसमें इस्लाम को कट्टरवादी धर्म बताया गया था और इस उप-महाद्वीप में रहने वाले सभी इस्लाम धर्मानुयायियों को 'कन्वर्ट' कहा गया था। उसके तुरंत बाद ही उन्हें पश्चिमी ताकतों द्वारा साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता।
बी.एस.नायपाल की अधिकृत जीवनी लिखने वाले पैट्रिक फे्रंच की पुस्तक 'द वर्ल्ड इा व्हाट इट इा' में लिखी बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो नायपाल जब-जब भी भारत आए यहां के लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण कोई बहुत सम्मानजनक नहीं रहा। वे मुंबई और थाणे में दलित लेखकों के घर उनसे मिलने भी गए लेकिन वह एक अभिजात्य वर्ग के कुलीन लेखक का अपने से कमतर किसी लेखक के यहां जाना था जब कि शिवसेना के नेता बाला साहेब ठाकरे के लिए उनके मन में गहरा आदर का भाव था। यह एक और पक्ष है जो कि सर विद्या को आडवानी के करीब लाता है। लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री-माई लाईफ' में दो अन्य प्रखर बुध्दिजीवियों का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है, जिन्होंने अयोध्या प्रकरण में उन्हें खुला समर्थन दिया- वे हैं- नीराद सी. चौधरी और गिरिलाल जैन। 'आटोबायग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' के लेखक जो कि भूरे साहब के नाम से भी जाने जाते थे, नीराद सी. चौधरी निश्चित ही यूरोप में भारत की पहचान थे लेकिन वे आजीवन भारतीय जन-जीवन के प्रति अपनी घृणा के लिए जाने जाते रहे, इसलिए उनका अपने समर्थन में होना एक तरह से अपने विरोध में होना ही है। लगभग यही बात धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में गिरिलाल जैन पर लागू होती है। दिवंगत श्री जैन की सोच और उनकी विचारधारा किसी से छिपी हुई नहीं थी। श्री जैन ने भी अयोध्या-आन्दोलन को हिन्दू-पुर्नजागरण का एक अनिवार्य और ऐतिहासिक हिस्सा बनाया था।
सच तो यह है कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद के देश में हिन्दी क्षेत्र के तमाम समाचारपत्र और पत्रिकाएं अगर पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक समाचार-पत्रों और उनके संपादकों ने देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप का हवाला देते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की खुलकर निंदा की थी। कई बार लगता है कि हमारा मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र यूरोपियन राष्ट्रों की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है इसलिए वे हर तरह के हथकंडे हमारे ऊपर आजमाते हैं, यहां तक कि हमारे ही बुध्दिजीवियों को भी इन स्थितियों में एक समरस समाज में खलल पैदा करने की कोशिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। जापानी कवि मिशियो माडो की पंक्तियां क्या सचमुच सटीक नहीं लगतीं- ''कई बार मैं चकित हो जाता हूं कि, ऐसा क्यों नहीं हैयुग-युगांतर से, अरबों-खरबों साल से, हम धूप में रहते आए हैं, जो इतनी निर्मल हैहवा में सांस लेते आए हैं जो इतनी निर्मल हैपानी पीते आते आए हैं, जो इतना निर्मल है, तब क्यों, आखिर क्योंहम और काम हमारे,पहुंच नहीं पाते, कैसे भी निर्मलता तक।''
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Thursday 15 December 2011


फौ अहमद फौ ने अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले नवम्बर 1984 में  लिखा था-''हम एक उम्र से वाकिंफ हैं, अब न समझाओ कि लुतंफ क्या है, मेरे मेहरबां और सितम क्या है।''
कल छै: दिसम्बर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस को उन्नीस वर्ष पूरे हो गए। उसके बाद देश में बहुत कुछ बदला है, पर वह जो दरार छै: दिसम्बर 1992 को अयोध्या में पड़ी, उसे अभी तक पूरी तरह नहीं भरा जा सका है। दोनों समुदायों में बड़ी संख्या में ऐसे तथाकथित बुध्दिजीवी आपको मिल जाएंगे जो इतिहास के तहखाने में गोते लगाते-लगाते, अपनी सांस ऊपर-नीचे करते आपको लगातार समझाने की कोशिश करेंगे कि वहां दरअसल मंदिर था या मस्जिद थी। अपने इतिहास में या अतीत में जाना कोई बहुत बुरी बात तो नहीं है लेकिन उसमें धंस जाना और फिर वहीं ठहर जाना, निश्चित ही बुरा है। अपनी जडों के बिना कोई भी संप्रदाय, कोई भी जाति, कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती लेकिन जड़ों को सींचने का काम वर्तमान और भविष्य की दृष्टि ही करती है। पिछले उन्नीस वर्षों में देश ने अपनी काफी ऊर्जा इस बात पर खर्च की है कि इस मामले को कैसे सुलझाया जाए। सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही तरह से। देश की न्यायपालिका को इस विवाद के अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा गया है पर मामला अभी तक वादियों, प्रतिवादियों और याचिकाओं, पुर्नयाचिकाओं के भंवरजाल में है। इस बात को निश्चित तौर पर बता पाना बहुत मुश्किल है कि अंतत: कब अंतिम रूप से यह तय किया जा सकेगा कि मंदिर कहां था और मस्जिद कहां थी। वैसे तो आस्था के सभी केंद्रबिंदु मनुष्य के अपने भीतर होते हैं पर यहां सवाल व्यक्तिगत आस्था का नहीं है अपितु सामूहिक तर्क और विश्वास का है, इसलिए यह ारूरी है कि कोई सर्वमान्य हल ऐसा हो जो दोनों समुदायों के स्वाभिमान को आंच न पहुंचाता हो। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी ने, एक ऐसे समय में अपनी रथ-यात्रा के माध्यम से दोनों समुदायों के बीच ऐसी रेखा खींच दी, जिसने अल्पसंख्यकों के मन में एक गहरा घाव पैदा कर दिया। यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की उस भावना के बिल्कुल विपरीत था जो उन्होंने आाादी के तुरंत बाद देश के सभी मुख्यमंत्रियों के नाम अपने पत्र में व्यक्त की थी। पंडित नेहरू ने 15 अक्टूबर 1947 को लिखे इस पत्र में कहा था कि, ''हमें अल्पसंख्यक संप्रदाय के साथ सभ्यता का बर्ताव करना होगा। हमें उन्हें सुरक्षा और एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों को मिलने वाले सभी अधिकार देने ही होंगे। यदि हम ऐसा कर पाने में विफल रहे तो ऐसा तीखा घाव लगेगा, जो अंतत: पूरी व्यवस्था में ाहर भर देगा और संभवत: उसे ध्वस्त भी कर देगा।'' ााहिर है पंडित नेहरू की यह चेतावनी सिर्फ उनके अपने समय के लिए नहीं थी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी थी। प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी कहा था कि बहुसंख्यक समाज की दस प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता, अल्पसंख्यकों की सौ प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता के ऊपर भारी पड़ सकती है। कुछ वर्ष पूर्व मैं लाहौर में था। लाहौर की सड़कों पर घूमते हुए मुझे एक भारतीय के रूप में पहचान पाना कोई मुश्किल काम नहीं था। यह बात अलग है कि वहां इंग्लैण्ड अथवा कैनेडा से आए सिक्खों को भी देखा जा सकता है। मेरी जो बातचीत वहां के युवकों से या सड़कों पर मिलने वाले अन्य लोगों से हुई, उसमें यह आभास हुआ कि वहां के युवकों में भारत-विरोधी और विशेष रूप से हिन्दू-विरोधी धारणाएं बहुत प्रबल हैं। उन्हें लगता है कि भारत उनका पड़ोसी नहीं, बड़ा भाई नहीं, मित्र नहीं बल्कि शत्रु है। यह अजीब था। वे जैसे अपने अतीत का हिस्सा ही नहीं थे। उनके लिए यह दुनिया साठ-पैंसठ साल पहले ही बनी थी। प्रगतिशील सहित्य की जानी-मानी लेखिका किश्वर नाहीद से अपने होटल में बातचीत के दौरान जब मैंने यह जानना चाहा कि अंतत: पच्चीस-तीस वर्षीय पाकिस्तानी युवकों में घृणा का यह भाव क्यों है, वे तो विभाजन के बहुत बाद में पैदा हुए तो उन्होंने तपाक से कहा कि - ''यह सब पश्चिमी मीडिया का कमाल है, जो हम सब भोग रहे हैं। यूरोपीय राष्ट्र और अमेरिका कभी नहीं चाहते कि इस उप-महाद्वीप में शांति बनी रहे या कि लोगों के जीवन स्तर विकसित हो सके।'' यह बात सच है। आज जब हम इंटरनेट खोलकर बैठते हैं तो देखते हैं कि 'फेसबुक' के अंदर कई चेहरे ऐसे हैं जो अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और अपमान का ंजहर उगल रहे हैं।
यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति की ओर सिर्फ संकेत मात्र नहीं बल्कि तमाम संवेदनशील मानवीय मूल्यों का खुलमखुल्ला उल्लंघन है। दिलचस्प बात यह है कि फिलहाल इस पर कोई सजा नहीं, सरकारी-गैर-सरकारी तौर पर कोई आवाज नहीं, कोई विरोध नहीं। अगर कोई आपकी बात से असहमत हैं तो कुछेक व्यक्तियों द्वारा ऐसे फरमान भी जारी किए जाते हैं कि, असहमति वाले व्यक्ति को गोली मार देनी चाहिए। यह त्रासद है। इंटरनेट का अगर विचार के स्तर पर यह इस्तेमाल है तो इससे अच्छी क्या संवादहीनता की स्थिति नहीं होगी? यह सवाल बहुत अच्छा नहीं है, लेकिन अगर आप ने 'फेसबुक' पर कुछेक समूहों का वार्तालाप पढ़ा हो तो संभवत: यह सवाल औचित्यहीन नहीं लगेगा।
यह सही वक्त था कि इंटरनेट जैसे माध्यमों से हमारा समाज अयोध्या विवाद की तरह के मुद्दों पर एक तरह की रचनात्मक बहस करता जो कि सार्थक और विचारशील होती और किसी भी समुदाय की भावनाओं और उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाती।
अयोध्या मुद्दे की लंबित याचिकाओं पर न्यायाधीशों का जो भी अंतिम फैसला आए वह दोनों समुदायों को अपने-अपने स्वाभिमान के साथ स्वीकार्य हो और हम सब को एक बेहतर मनुष्य बनाए, यही कामना है। आमीन!
अंत में युवा कवि प्रदीप जलवाने की एक कविता ''आस्था का अंश''-  ''जैसे बीज की आस्था होती है धरती में, जैसे बूंद की आस्था होती है समुद्र में, जैसे किसी पाखी की आस्था होती है आकाश में, तुम मेरी आस्था की धरती, समुद्र और आकाश हो।''

Tuesday 13 December 2011

ब्रटोल्ट ब्रेख्त ने एक जगह कहा है कि, '' जिस तरह मनुष्य को रोजी रोटी की जरूरत होती है, ठीक उसी तरह न्याय की जरूरत भी रोजी होती है, बल्कि न्याय की जरूरत दिन में कई बार हो सकती है।''
यह सच है कि जीवन में और दुनिया में मनुष्य के, मनुष्य के रूप में मूलभूत मानवीय अधिकारों के हनन का सिलसिला बहुत पुराना है। कभी रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर, कभी कथित वंश परंपरा के आधार पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के अधिकारों का लगातार उल्लंघन करता आया है। भारत में तो मानवीय अधिकारों के उल्लंघन का रिकार्ड बहुत खराब है। मूल रूप में मनुवादी वर्ण व्यवस्था ही मनुष्यता के खिलाफ इतिहास का सर्वाधिक क्रूर और अंतरतम् तक बेचैन कर देने वाला षड़यंत्र है। मनुष्य को चार वर्णों में विभाजित कर के देखा जाये? मनुष्यता का इससे अधिक अपमान और क्या हो सकता है? मनु ने शूद्रों और स्त्री जाति के लिए जिन शब्दों और धारणाओं का इस्तेमाल किया उससे किसी भी समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। लेकिन किसी भी जीवंत समाज में आत्मपरीक्षण और सुधार के लिए गुंजाइश बची रहती है। हमारा समाज भी एक जीवंत समाज है और इसीलिए यहां भी समय-समय पर चेतना की अलख जगाने वाले सामाजिक आंदोलन हुए आज हम एक लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सम्माजनक ढंग से रह रहे हैं। पर यह आधा सच है। आधा सच यह है कि आज भी हमारे यहां बड़ी संख्या में बाल श्रमिक हैं, कन्या जन्म दर का प्रतिशत घट रहा है, खेतिहर श्रमिकों को समाज में सम्मानजनक स्थान हासिल नहीं है। स्त्रियां और दलित जातियां अभी भी समाज में बराबरी के हक के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन कुल मिलाकर पिछली सदी के मुकाबले स्थिति में काफी सुधार हुआ है। दरअसल हमारी जड़ों में जो हमारे संस्कार हैं वे हमारे रास्ते में सबसे ज्यादा बाधक हैं। हमारी कहावतें तक ऐसी हैं जो कि हमें अन्याय का प्रतिकार करने से रोकती हैं। ऐसी ही एक कहावत है- ''भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं।'' ााहिर है कहावतें तो जनमानस की मन, स्थिति का निचोड़ होती हैं, उन पर तर्क-कुतर्क नहीं किए जा सकते, लेकिन इससे यह तो पता चलता है कि हम एक तरह की आस्था के साथ अन्याय को बर्दाश्त करते चलते हैं कि देर से ही सही पर एक दिन न्याय ारूर हमारा दरवाजा खटखटायेगा, और उसके लिए भी हमें कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह काम भी भगवान करेगा। यह एक सामंतवादी, मनुवादी संस्कार है जो कि सामंतवाद के पोषकों द्वारा समाज में एक धारणा के रूप में स्थापित किया गया है। सामंतवाद मानवीय अधिकारों का पहली पंक्ति का शत्रु होता है। मैंने पंजाब में कई स्त्रियों द्वारा अपने बच्चों को राजाओं की कहानियां सुनाते हुए सुना है कि- ''फलां राजा की तीन सौ पैंसठ रानियां थीं, उसे सड़क पर जो भी सुंदर स्त्री दिखती थी, वह उसे उठा लाता था''- और यह कहानियां मांओं द्वारा बच्चों को बड़े गर्व के साथ सुनाई जाती थीं। यह किस्सा सिर्फ पंजाब का ही नहीं है बल्कि लगभग पूरे गरीब हिंदी प्रदेश और इतर राज्यों में भी एक समान है। सामंतवाद के अवशेष अभी तक हमारे आस-पास बड़ी संख्या में बिखरे पड़े हैं और ये मानवीय अधिकारों की गरिमा और उनकी सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है। ारूरत है इन अवशेषों को इकट्ठा करके हिंद महासागर में उलट दिया जाए ताकि ये शेष जनसामान्य के महासागर से इनका कोई नाता न रहे।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में यह जो वैश्वीकरण, ग्लोबलाईजेशन हुआ है, इसके भीतर झांककर देखें तो एक खतरा जो दिखाई देता है वह यह कि कहीं सामंतवाद अपना रूप बदल कर लौट तो नहीं रहा? मनुस्मृति में एक मोदार बात है, वह यह कि पैसा सिर्फ उसी व्यक्ति के पास जमा किया जा सकता है जिसका रंग गोरा हो। क्या हम भी यही नहीं कर रहे हैं। अपनी अकूत धन संपदा, अपना सारा खााना चाहे वह पैसा हो या हमारा ज्ञान भंडार। कहीं हम सिर्फ गोरी चमड़ी वालों के लिए ही तो खर्च नहीं कर रहे हैं। उनके उत्पादन, उनके जीवन मूल्य हमें अपने उत्पादन और अपने जीवन मूल्यों से बेहतर लगने लगे हैं। यह एक खतरनाक संकेत है। नव-पूंजीवाद में कहीं नव-सामंतवाद भी छिपा हुआ है और इसकी पड़ताल करना हमारी पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए। जब तक हमारी प्राथमिकता में हमारा आदिवासी, हमारा खेतहिर श्रमिक, वे संघर्षशील स्त्रियां जिन्हें अभी तक उनका उचित और सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है, और बाल मजदूर ये सब नहीं होंगे तब तक मानवीय मूल्यों के हनन की सारी बातें एक तरह का निरर्थक संवाद बन कर ही रह जाएंगी। नीरा राडिया और करीना कपूर हमारे रोल माडल नहीं हो सकते, मेधा पाटकर और अरुंधति राय अवश्य हो सकती हैं, और हैं। अजब-गजब बात यह है कि नव-पूंजीवाद और धार्मिक उन्माद दोनों एक साथ हमारे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर रहे हैं और यह संयोग नहीं है, बल्कि सुनियोजित है। हम एक तरह के सामंतवाद से मुक्त होकर दूसरी तरह के सामंतवाद में धंस रहे हैं। सामंतवाद ने नव-उदारवाद का मुखौटा पहन लिया है और हम मुखौटे को चेहरा समझने की भूल कर रहे हैं। ऐसे में सब से ज्यादा संकट उस समाज के लिए होता है जो अभी कल तक आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ था। जो नैतिक सवाल उसे सब से ज्यादा परेशान करता है वह यह कि अगड़ी जातियों और आर्थिक रूप से समृध्द होकर कहीं वह भी तो शोषकों के समाज का हिस्सा नहीं बन जाएगा? ठीक इसी जगह पर आकर उसे ठहरने, सोचने और फिर सही दिशा की तलाश करने की जरूरत होती है। ऐसे ही नाजुक समय में उसे दिग्भ्रमित करने वाली शक्तियां सक्रिय होती हैं। डर इस बात का है कि कहीं अन्ना हजारे का आंदोलन इसी सुनियोजित षड़यंत्र का एक हिस्सा तो नहीं, क्योंकि उसमें खाते-पीते लोगों के शोषण की बात तो है पर भूखे-नंगे लोगों की तरफ उसका ध्यान जरा भी नहीं है। वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारे तो हैं लेकिन उस भारत की असली तस्वीर के प्रति किसी तरह की संवेदना नार नहीं आती, जिसमें किसानों की आत्महत्याएं हैं या पिसता हुआ निम्न मध्य वर्ग है। भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह का भ्रष्टाचार है और राष्ट्र का नाम लेकर जनता को गुमराह करना, मानवीय मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है। भारतीय मध्य वर्ग की स्थिति मुझे प्रख्यात मलयालम कवि अय्यप पणिकर की इस कविता की तरह लगती है:-
''हंसने मात्र के लिए बनाया एक पुतला, उसे रोने की इच्छा होती, तो भी, हंसी बस हंसी ही आतीइसी तरह निर्माण किया गया है इसका पंडितगण कहते हैं।''
ttejinder.gagan@gmail.com


 
 

Thursday 1 December 2011

३० नवम्बर (आज का मेरा लेख )


पाश की प्रसिध्द कविता 'भारत' की आरंभिक ये पंक्तियां हैं-
''भारत मेरे सम्मान का सब से महान शब्दजहां कहीं भी प्रयोग किया जाए बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।'' इसी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं:-

''भारत के अर्थ, किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं, वरन् खेतों में दायर हैं, जहां अन्न उगता है, जहां सेंध लगती है।''
पहले भारतीय होने का एक सीधा-सच्चा अर्थ होता था- सहज और निश्छल, कि ''मैं भारतीय हूं और भारतीय होने पर मुझे गर्व है।'' आज भी है, पर फिर भी पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में हमारा भारतीय होना एक तरह के विखंडन की तरफ बढ़ता हुआ नार आ रहा है। कई बार यह सवाल पूछने का मन करता है कि आप कौन से भारतीय हैं? सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह वाले भारत के जो देश को विदेशों में बेचकर अस्थायी तौर पर विदेशी पूंजी कमाने में व्यस्त हैं या कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले जो कि अपनी गुप्त किताबों में सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग को ही भारतीय मानते हैं, देश के नव-धनाडय वर्ग के आधुनिक छात्र जो तथाकथित ऊंचे और सचमुच महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं और जिन्हें अपने घर का खाना अच्छा नहीं लगता, या फिर भारतीय उन को कहा जाए जिनके घरों में अन्न का दाना नहीं है और न ही आने की कोई उम्मीद बची है। आप कौन से भारतीय हैं? यह सवाल हमारे समय का सबसे अहम् और जरूरी सवाल होना चाहिए।
देश के आंतरिक स्रोतों से देश की आय को बढ़ाने की कोशिश करने की जगह हम वालमार्ट को बुला रहे हैं कि ''आओ देखो हमारे पास कितने साधन हैं, हमारे पास खनिज है, हमारे पास भूमि है, हमारे पास जनसंख्या है, हमारे पास नदियां हैं जिनमें पानी बहता है, हमारे पास खेती की और उद्योग की अपनी एक परम्परा है- पर हम क्या करें? हम नाकारा हैं- 'तुम आओ और हमारा उध्दार करो', हमारे मध्यवर्ग को तुम से बहुत प्यार हो गया है।''
हैदराबाद के इंस्टीटयूट ऑफ चार्टर्ड फायनेंशियल एनालिस्ट ऑफ इंडिया में अर्थशास्त्र के अनुसंधानकर्ता ईशान चौधरी और अनुगीत सलूजा का कहना है कि- ''सर आप देखिएगा, आने वाले पांच वर्षों में वाल्मार्ट पूरे देश में छा जाएगा, हमारे खुदरा व्यापारी और छोटे-छोटे दुकानदार वालमार्ट से सहायता की भीख मांगेंगे, वालमार्ट के प्रतिनिधि हमारे किसानों को बताएंगे कि तुम्हें क्या उगाना है और कैसे उगाना है, हमारे कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधान केन्द्र अप्रासंगिक हो जाएंगे।'' क्या यह तथ्य हास्यास्पद नहीं कि  वालमार्ट के पास अरबों डॉलर से अधिक की पूंजी है, जिस पर हमारे शासकों को गर्व है, क्या यह बात अपने आप में खतरनाक नहीं है? वालमार्ट हमारे लिए नया भारत बनाएगा या हमारे बीच बची हुई भारतीयता को भी हम से छीन कर ले जाएगा, इस बात का पता तो अगले कुछ वर्षों में ही चलेगा। पर फिलहाल यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या हमारे नीति निर्धारिकों को इस बात का पता नहीं है कि अपनी पूंजी हमारे यहां लगाने वाले देश उस वक्त अपनी पूंजी को वापिस अपने देश ले जाएंगे, जब यहां लगाई गई पूंजी पर वे लाभ कमाने लगेंगे। ईशान चौधरी के अनुसार, उस लाभ की कोई हिस्सेदारी विकासशील राष्ट्रों को नहीं मिलती। क्या हम इतने नाकारा, नासमझ और निरक्षर हैं कि हम यह नहीं समझ सकते कि इस तरह हमारी घरेलू कंपनियों का विकास अवरूध्द हो जाएगा और हम पूरी तरह से उनके चंगुल में कुछ यों ही फंस जाएंगे जैसे कि विदर्भ के किसान ब्याजखोरों के जाल में फंसकर आत्महत्या कर लेते हैं। हमें उन्हीं से उधार ले कर अपने अर्थतंत्र में स्थायित्व लाना होगा। हम किसके दबाव में काम कर रहे हैं यह तो समझ में आता है पर क्यों? इसे समझना थोड़ा पेचीदा है। दुर्भाग्य से हमारा अंर्तविरोध यह है कि अपने खेतों में सेंध लगाने वाले की पहचान तो हमें है पर उनको पकड़कर कटघरे में खड़ा करने की जगह हम उन्हें दोबारा चुनकर अपनी संसद में भेजने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी त्रासदी है।
दरअसल हमारी विशाल युवा पीढ़ी का एक छोटा हिस्सा ही देश के प्रबंधन में शामिल हैं। युवा-वर्ग का एक बड़ा हिस्सा धर्म के अंधेरे में खोया हुआ है तो एक दूसरा बड़ा हिस्सा टेलीविजन के 'बिग बॉस' जैसे सीरियलों की चपेट में अंधा है, उसे पता ही नहीं कि वह क्या कर रहा है और किस तरह अपने साथ देश के एक बड़े वर्ग को आत्मघाती प्रवृत्तियों की ओर खींच रहा है। शेष बचा हुआ तीसरा हिस्सा जो कि देश के प्रबंधन में शामिल है, उसका पचास प्रतिशत वालमार्ट की आरामगाह में बैठना चाहता है। तो परेशान करने वाला सवाल यह है कि यह जो तीसरे हिस्से का भी आधा हिस्सा है, इसे बचाकर कैसे रखा जाए? इसकी आवाज को कैसे पूरे अवाम की आवाज बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है कि खेतिहर श्रमिकों और विशेष रूप से उनके युवा वर्ग और दलितों और आदिवासियों को संगठित कर उनमें इस बात के प्रति चेतना का विस्तार किया जाए। कुछ इस तरह कि उनकी समझ में आए कि उनके दुश्मन कहीं दूर यूरोप और अमेरिका में नहीं बैठे हैं, बल्कि अपने आसपास ही हैं, जो कि दुर्भाग्य से अपने आप को साक्षर और पढ़ा-लिखा मानते हैं।
यह काम वामपंथी पार्टियां कर सकती हैं शर्त सिर्फ यही है कि वे अपनी पिछली गलतियों को न दोहराएं और दक्षिणपंथी पार्टियों द्वारा अपने विरुध्द किए जाने वाले दुष्प्रचार का दृढ़तापूर्वक जवाब देते हुए जनमानस में अपनी एक नई पहचान और विश्वसनीयता बनाएं। यों तो यह काम सभी राजनैतिक दलों को करना चाहिए पर चूंकि वामपंथी दलों की स्वाभाविक प्रवृत्ति, उनकी मूल सोच श्रमिकों और मजदूरों की पक्षधर है इसलिए उनसे इस बात की अपेक्षा अधिक की जाती है।
यह समझ पाना मुश्किल है कि तकनीक के इतने विकास और जनसंख्या के अनुपात में अनाज के उत्पादन में भी सामुनिपातिक वृध्दि के होते हुए, जमीन के मालिक, जमीन के गुलाम कैसे बन गए। क्या यह उसी कहानी का दोहराव नहीं है जो पहिले हमारा शासक वर्ग और शहरी व्यापार जगत आदिवासियों के साथ कर चुका है। विध्वंस का दोहराव क्या कोई देश बर्दाश्त कर सकता है? प्रश्न बहुत हैं- पर उन्हें सुनने वाला कोई दिखाई नहीं देता- कहीं अमूर्त में हैं, पर वह जहां भी है एक दिन उसे आम आदमी के इन सब सवालों का जवाब देना होगा। फिलहाल तो एक बार फिर पाश के शब्दों का ही सहारा लेना होगा- ''तुझ से दिल का सच कहना, दिल की बेअदबी है सच की बेअदबी है तुझ से गिला करना इश्क की हेठी है जा तू शिकायत के काबिल हो कर आसभी तो मेरी हर शिकायत से तेरा कद बहुत छोटा है।''
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