Wednesday 21 December 2011

21 dec आज का मेरा अंक

एक कविता की पंक्तियां है- 'एक हाथ में महीन धागा है, दर्जी के पास, जिससे वह सिलता जाता है कुर्ते और निक्करें, और दूसरे हाथ में कैंची, वह कैंची से काटता है और फिर महीन धागे से सिलता है,
कपड़े, जो मनुष्य के जिस्म को ढंकते हैं, सलीके से, इस तरह वह आकार देता है कपड़ों को, मनुष्य को नंगा होने से बचाए रखने के लिए, और इस पवित्र काम में, धागा और कैंची दोनों ही उसके अस्त्र होते हैं'- किसी भी विचारशील समाज में बुध्दिजीवी की भूमिका एक दर्जी की तरह की होनी चाहिए। हार्वाड विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों भारत के एक व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक दल जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यिम स्वामी को अपने यहां के अध्यापकीय पैनल से बाहर निकाल दिया। उन पर यह कार्रवाई अपने एक लेख में इस्लाम धर्म पर और इस धर्म के अनुयायियों पर की गई विपरीत टिप्पणियों के कारण की गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बुध्दिजीवी वर्ग ने आम तौर पर हार्वाड विश्वविद्यालय के इस कदम की सराहना की। डॉ. सुब्रमण्यिम स्वामी ने सिर्फ इस्लाम के लिए ही आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष तथा कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति भी उनकी नागरिकता और उनके ईसाई होने को लेकर तरह-तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें करके बड़ी संख्या में युवाओं को भ्रमित किया है। उनका पूरा आचरण इस बात का पुख्ता सबूत है कि सिर्फ डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा, परिपक्व और समझदार नहीं हो जाता। हार्वाड विश्वविद्यालय का जहां तक सवाल है उन्होंने उचित ही किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ वर्ष और विगत की ओर चलें तो दोहरे मापदंडों का पता भी चलता है। करीब एक दशक पहले भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक सर विद्याधर नायपाल को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन पर यह आरोप है कि अपने चिंतन और लेखन में वे घोर साम्प्रदायिक हैं। 6 दिसम्बर 1992 में जब अयोध्या में बाबरी-मस्जिद का दुर्भाग्यजनक प्रकरण हुआ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन दो या तीन बुध्दिजीवियों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की प्रशंसा की सर विद्या उनमें प्रमुख थे। नायपाल ने कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण हिन्दुस्तान के पुर्नजागरण का प्रतीक है।'' नायपाल ने रोमिला थापर के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को महज मार्क्सवादी बताकर नकारते हुए कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण एक तरह का ऐतिहासिक प्रतिशोध है।'' यह एक तरह से आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद की सोच को ताकत देने वाली प्रतिक्रिया थी।
6 दिसम्बर 1992 के दिन जब सारी दुनिया का मीडिया उस त्रासद घटना को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक अशुभ संकेत बता रहा था। नायपाल ने टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि- 'वे लोग जिन्होंने मस्जिद की मीनारों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने का काम किया उनकी भावनाओं (पैशन) को समझने की जरूरत है।'
अयोध्या प्रकरण के कुछ ही वर्षों बाद नायपाल ने अपना विवादास्पद लेख लिखा था जिसमें इस्लाम को कट्टरवादी धर्म बताया गया था और इस उप-महाद्वीप में रहने वाले सभी इस्लाम धर्मानुयायियों को 'कन्वर्ट' कहा गया था। उसके तुरंत बाद ही उन्हें पश्चिमी ताकतों द्वारा साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता।
बी.एस.नायपाल की अधिकृत जीवनी लिखने वाले पैट्रिक फे्रंच की पुस्तक 'द वर्ल्ड इा व्हाट इट इा' में लिखी बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो नायपाल जब-जब भी भारत आए यहां के लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण कोई बहुत सम्मानजनक नहीं रहा। वे मुंबई और थाणे में दलित लेखकों के घर उनसे मिलने भी गए लेकिन वह एक अभिजात्य वर्ग के कुलीन लेखक का अपने से कमतर किसी लेखक के यहां जाना था जब कि शिवसेना के नेता बाला साहेब ठाकरे के लिए उनके मन में गहरा आदर का भाव था। यह एक और पक्ष है जो कि सर विद्या को आडवानी के करीब लाता है। लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री-माई लाईफ' में दो अन्य प्रखर बुध्दिजीवियों का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है, जिन्होंने अयोध्या प्रकरण में उन्हें खुला समर्थन दिया- वे हैं- नीराद सी. चौधरी और गिरिलाल जैन। 'आटोबायग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' के लेखक जो कि भूरे साहब के नाम से भी जाने जाते थे, नीराद सी. चौधरी निश्चित ही यूरोप में भारत की पहचान थे लेकिन वे आजीवन भारतीय जन-जीवन के प्रति अपनी घृणा के लिए जाने जाते रहे, इसलिए उनका अपने समर्थन में होना एक तरह से अपने विरोध में होना ही है। लगभग यही बात धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में गिरिलाल जैन पर लागू होती है। दिवंगत श्री जैन की सोच और उनकी विचारधारा किसी से छिपी हुई नहीं थी। श्री जैन ने भी अयोध्या-आन्दोलन को हिन्दू-पुर्नजागरण का एक अनिवार्य और ऐतिहासिक हिस्सा बनाया था।
सच तो यह है कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद के देश में हिन्दी क्षेत्र के तमाम समाचारपत्र और पत्रिकाएं अगर पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक समाचार-पत्रों और उनके संपादकों ने देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप का हवाला देते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की खुलकर निंदा की थी। कई बार लगता है कि हमारा मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र यूरोपियन राष्ट्रों की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है इसलिए वे हर तरह के हथकंडे हमारे ऊपर आजमाते हैं, यहां तक कि हमारे ही बुध्दिजीवियों को भी इन स्थितियों में एक समरस समाज में खलल पैदा करने की कोशिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। जापानी कवि मिशियो माडो की पंक्तियां क्या सचमुच सटीक नहीं लगतीं- ''कई बार मैं चकित हो जाता हूं कि, ऐसा क्यों नहीं हैयुग-युगांतर से, अरबों-खरबों साल से, हम धूप में रहते आए हैं, जो इतनी निर्मल हैहवा में सांस लेते आए हैं जो इतनी निर्मल हैपानी पीते आते आए हैं, जो इतना निर्मल है, तब क्यों, आखिर क्योंहम और काम हमारे,पहुंच नहीं पाते, कैसे भी निर्मलता तक।''
ttejinder.gagan@gmail.com

 
  

21 dec आज का मेरा अंक




एक कविता की पंक्तियां है- 'एक हाथ में महीन धागा है, दर्जी के पास, जिससे वह सिलता जाता है कुर्ते और निक्करें, और दूसरे हाथ में कैंची, वह कैंची से काटता है और फिर महीन धागे से सिलता है,
कपड़े, जो मनुष्य के जिस्म को ढंकते हैं, सलीके से, इस तरह वह आकार देता है कपड़ों को, मनुष्य को नंगा होने से बचाए रखने के लिए, और इस पवित्र काम में, धागा और कैंची दोनों ही उसके अस्त्र होते हैं'- किसी भी विचारशील समाज में बुध्दिजीवी की भूमिका एक दर्जी की तरह की होनी चाहिए। हार्वाड विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों भारत के एक व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक दल जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यिम स्वामी को अपने यहां के अध्यापकीय पैनल से बाहर निकाल दिया। उन पर यह कार्रवाई अपने एक लेख में इस्लाम धर्म पर और इस धर्म के अनुयायियों पर की गई विपरीत टिप्पणियों के कारण की गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बुध्दिजीवी वर्ग ने आम तौर पर हार्वाड विश्वविद्यालय के इस कदम की सराहना की। डॉ. सुब्रमण्यिम स्वामी ने सिर्फ इस्लाम के लिए ही आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष तथा कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति भी उनकी नागरिकता और उनके ईसाई होने को लेकर तरह-तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें करके बड़ी संख्या में युवाओं को भ्रमित किया है। उनका पूरा आचरण इस बात का पुख्ता सबूत है कि सिर्फ डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा, परिपक्व और समझदार नहीं हो जाता। हार्वाड विश्वविद्यालय का जहां तक सवाल है उन्होंने उचित ही किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ वर्ष और विगत की ओर चलें तो दोहरे मापदंडों का पता भी चलता है। करीब एक दशक पहले भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक सर विद्याधर नायपाल को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन पर यह आरोप है कि अपने चिंतन और लेखन में वे घोर साम्प्रदायिक हैं। 6 दिसम्बर 1992 में जब अयोध्या में बाबरी-मस्जिद का दुर्भाग्यजनक प्रकरण हुआ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन दो या तीन बुध्दिजीवियों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की प्रशंसा की सर विद्या उनमें प्रमुख थे। नायपाल ने कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण हिन्दुस्तान के पुर्नजागरण का प्रतीक है।'' नायपाल ने रोमिला थापर के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को महज मार्क्सवादी बताकर नकारते हुए कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण एक तरह का ऐतिहासिक प्रतिशोध है।'' यह एक तरह से आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद की सोच को ताकत देने वाली प्रतिक्रिया थी।
6 दिसम्बर 1992 के दिन जब सारी दुनिया का मीडिया उस त्रासद घटना को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक अशुभ संकेत बता रहा था। नायपाल ने टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि- 'वे लोग जिन्होंने मस्जिद की मीनारों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने का काम किया उनकी भावनाओं (पैशन) को समझने की जरूरत है।'
अयोध्या प्रकरण के कुछ ही वर्षों बाद नायपाल ने अपना विवादास्पद लेख लिखा था जिसमें इस्लाम को कट्टरवादी धर्म बताया गया था और इस उप-महाद्वीप में रहने वाले सभी इस्लाम धर्मानुयायियों को 'कन्वर्ट' कहा गया था। उसके तुरंत बाद ही उन्हें पश्चिमी ताकतों द्वारा साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता।
बी.एस.नायपाल की अधिकृत जीवनी लिखने वाले पैट्रिक फे्रंच की पुस्तक 'द वर्ल्ड इा व्हाट इट इा' में लिखी बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो नायपाल जब-जब भी भारत आए यहां के लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण कोई बहुत सम्मानजनक नहीं रहा। वे मुंबई और थाणे में दलित लेखकों के घर उनसे मिलने भी गए लेकिन वह एक अभिजात्य वर्ग के कुलीन लेखक का अपने से कमतर किसी लेखक के यहां जाना था जब कि शिवसेना के नेता बाला साहेब ठाकरे के लिए उनके मन में गहरा आदर का भाव था। यह एक और पक्ष है जो कि सर विद्या को आडवानी के करीब लाता है। लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री-माई लाईफ' में दो अन्य प्रखर बुध्दिजीवियों का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है, जिन्होंने अयोध्या प्रकरण में उन्हें खुला समर्थन दिया- वे हैं- नीराद सी. चौधरी और गिरिलाल जैन। 'आटोबायग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' के लेखक जो कि भूरे साहब के नाम से भी जाने जाते थे, नीराद सी. चौधरी निश्चित ही यूरोप में भारत की पहचान थे लेकिन वे आजीवन भारतीय जन-जीवन के प्रति अपनी घृणा के लिए जाने जाते रहे, इसलिए उनका अपने समर्थन में होना एक तरह से अपने विरोध में होना ही है। लगभग यही बात धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में गिरिलाल जैन पर लागू होती है। दिवंगत श्री जैन की सोच और उनकी विचारधारा किसी से छिपी हुई नहीं थी। श्री जैन ने भी अयोध्या-आन्दोलन को हिन्दू-पुर्नजागरण का एक अनिवार्य और ऐतिहासिक हिस्सा बनाया था।
सच तो यह है कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद के देश में हिन्दी क्षेत्र के तमाम समाचारपत्र और पत्रिकाएं अगर पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक समाचार-पत्रों और उनके संपादकों ने देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप का हवाला देते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की खुलकर निंदा की थी। कई बार लगता है कि हमारा मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र यूरोपियन राष्ट्रों की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है इसलिए वे हर तरह के हथकंडे हमारे ऊपर आजमाते हैं, यहां तक कि हमारे ही बुध्दिजीवियों को भी इन स्थितियों में एक समरस समाज में खलल पैदा करने की कोशिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। जापानी कवि मिशियो माडो की पंक्तियां क्या सचमुच सटीक नहीं लगतीं- ''कई बार मैं चकित हो जाता हूं कि, ऐसा क्यों नहीं हैयुग-युगांतर से, अरबों-खरबों साल से, हम धूप में रहते आए हैं, जो इतनी निर्मल हैहवा में सांस लेते आए हैं जो इतनी निर्मल हैपानी पीते आते आए हैं, जो इतना निर्मल है, तब क्यों, आखिर क्योंहम और काम हमारे,पहुंच नहीं पाते, कैसे भी निर्मलता तक।''
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Thursday 15 December 2011


फौ अहमद फौ ने अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले नवम्बर 1984 में  लिखा था-''हम एक उम्र से वाकिंफ हैं, अब न समझाओ कि लुतंफ क्या है, मेरे मेहरबां और सितम क्या है।''
कल छै: दिसम्बर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस को उन्नीस वर्ष पूरे हो गए। उसके बाद देश में बहुत कुछ बदला है, पर वह जो दरार छै: दिसम्बर 1992 को अयोध्या में पड़ी, उसे अभी तक पूरी तरह नहीं भरा जा सका है। दोनों समुदायों में बड़ी संख्या में ऐसे तथाकथित बुध्दिजीवी आपको मिल जाएंगे जो इतिहास के तहखाने में गोते लगाते-लगाते, अपनी सांस ऊपर-नीचे करते आपको लगातार समझाने की कोशिश करेंगे कि वहां दरअसल मंदिर था या मस्जिद थी। अपने इतिहास में या अतीत में जाना कोई बहुत बुरी बात तो नहीं है लेकिन उसमें धंस जाना और फिर वहीं ठहर जाना, निश्चित ही बुरा है। अपनी जडों के बिना कोई भी संप्रदाय, कोई भी जाति, कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती लेकिन जड़ों को सींचने का काम वर्तमान और भविष्य की दृष्टि ही करती है। पिछले उन्नीस वर्षों में देश ने अपनी काफी ऊर्जा इस बात पर खर्च की है कि इस मामले को कैसे सुलझाया जाए। सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही तरह से। देश की न्यायपालिका को इस विवाद के अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा गया है पर मामला अभी तक वादियों, प्रतिवादियों और याचिकाओं, पुर्नयाचिकाओं के भंवरजाल में है। इस बात को निश्चित तौर पर बता पाना बहुत मुश्किल है कि अंतत: कब अंतिम रूप से यह तय किया जा सकेगा कि मंदिर कहां था और मस्जिद कहां थी। वैसे तो आस्था के सभी केंद्रबिंदु मनुष्य के अपने भीतर होते हैं पर यहां सवाल व्यक्तिगत आस्था का नहीं है अपितु सामूहिक तर्क और विश्वास का है, इसलिए यह ारूरी है कि कोई सर्वमान्य हल ऐसा हो जो दोनों समुदायों के स्वाभिमान को आंच न पहुंचाता हो। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी ने, एक ऐसे समय में अपनी रथ-यात्रा के माध्यम से दोनों समुदायों के बीच ऐसी रेखा खींच दी, जिसने अल्पसंख्यकों के मन में एक गहरा घाव पैदा कर दिया। यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की उस भावना के बिल्कुल विपरीत था जो उन्होंने आाादी के तुरंत बाद देश के सभी मुख्यमंत्रियों के नाम अपने पत्र में व्यक्त की थी। पंडित नेहरू ने 15 अक्टूबर 1947 को लिखे इस पत्र में कहा था कि, ''हमें अल्पसंख्यक संप्रदाय के साथ सभ्यता का बर्ताव करना होगा। हमें उन्हें सुरक्षा और एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों को मिलने वाले सभी अधिकार देने ही होंगे। यदि हम ऐसा कर पाने में विफल रहे तो ऐसा तीखा घाव लगेगा, जो अंतत: पूरी व्यवस्था में ाहर भर देगा और संभवत: उसे ध्वस्त भी कर देगा।'' ााहिर है पंडित नेहरू की यह चेतावनी सिर्फ उनके अपने समय के लिए नहीं थी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी थी। प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी कहा था कि बहुसंख्यक समाज की दस प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता, अल्पसंख्यकों की सौ प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता के ऊपर भारी पड़ सकती है। कुछ वर्ष पूर्व मैं लाहौर में था। लाहौर की सड़कों पर घूमते हुए मुझे एक भारतीय के रूप में पहचान पाना कोई मुश्किल काम नहीं था। यह बात अलग है कि वहां इंग्लैण्ड अथवा कैनेडा से आए सिक्खों को भी देखा जा सकता है। मेरी जो बातचीत वहां के युवकों से या सड़कों पर मिलने वाले अन्य लोगों से हुई, उसमें यह आभास हुआ कि वहां के युवकों में भारत-विरोधी और विशेष रूप से हिन्दू-विरोधी धारणाएं बहुत प्रबल हैं। उन्हें लगता है कि भारत उनका पड़ोसी नहीं, बड़ा भाई नहीं, मित्र नहीं बल्कि शत्रु है। यह अजीब था। वे जैसे अपने अतीत का हिस्सा ही नहीं थे। उनके लिए यह दुनिया साठ-पैंसठ साल पहले ही बनी थी। प्रगतिशील सहित्य की जानी-मानी लेखिका किश्वर नाहीद से अपने होटल में बातचीत के दौरान जब मैंने यह जानना चाहा कि अंतत: पच्चीस-तीस वर्षीय पाकिस्तानी युवकों में घृणा का यह भाव क्यों है, वे तो विभाजन के बहुत बाद में पैदा हुए तो उन्होंने तपाक से कहा कि - ''यह सब पश्चिमी मीडिया का कमाल है, जो हम सब भोग रहे हैं। यूरोपीय राष्ट्र और अमेरिका कभी नहीं चाहते कि इस उप-महाद्वीप में शांति बनी रहे या कि लोगों के जीवन स्तर विकसित हो सके।'' यह बात सच है। आज जब हम इंटरनेट खोलकर बैठते हैं तो देखते हैं कि 'फेसबुक' के अंदर कई चेहरे ऐसे हैं जो अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और अपमान का ंजहर उगल रहे हैं।
यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति की ओर सिर्फ संकेत मात्र नहीं बल्कि तमाम संवेदनशील मानवीय मूल्यों का खुलमखुल्ला उल्लंघन है। दिलचस्प बात यह है कि फिलहाल इस पर कोई सजा नहीं, सरकारी-गैर-सरकारी तौर पर कोई आवाज नहीं, कोई विरोध नहीं। अगर कोई आपकी बात से असहमत हैं तो कुछेक व्यक्तियों द्वारा ऐसे फरमान भी जारी किए जाते हैं कि, असहमति वाले व्यक्ति को गोली मार देनी चाहिए। यह त्रासद है। इंटरनेट का अगर विचार के स्तर पर यह इस्तेमाल है तो इससे अच्छी क्या संवादहीनता की स्थिति नहीं होगी? यह सवाल बहुत अच्छा नहीं है, लेकिन अगर आप ने 'फेसबुक' पर कुछेक समूहों का वार्तालाप पढ़ा हो तो संभवत: यह सवाल औचित्यहीन नहीं लगेगा।
यह सही वक्त था कि इंटरनेट जैसे माध्यमों से हमारा समाज अयोध्या विवाद की तरह के मुद्दों पर एक तरह की रचनात्मक बहस करता जो कि सार्थक और विचारशील होती और किसी भी समुदाय की भावनाओं और उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाती।
अयोध्या मुद्दे की लंबित याचिकाओं पर न्यायाधीशों का जो भी अंतिम फैसला आए वह दोनों समुदायों को अपने-अपने स्वाभिमान के साथ स्वीकार्य हो और हम सब को एक बेहतर मनुष्य बनाए, यही कामना है। आमीन!
अंत में युवा कवि प्रदीप जलवाने की एक कविता ''आस्था का अंश''-  ''जैसे बीज की आस्था होती है धरती में, जैसे बूंद की आस्था होती है समुद्र में, जैसे किसी पाखी की आस्था होती है आकाश में, तुम मेरी आस्था की धरती, समुद्र और आकाश हो।''

Tuesday 13 December 2011

ब्रटोल्ट ब्रेख्त ने एक जगह कहा है कि, '' जिस तरह मनुष्य को रोजी रोटी की जरूरत होती है, ठीक उसी तरह न्याय की जरूरत भी रोजी होती है, बल्कि न्याय की जरूरत दिन में कई बार हो सकती है।''
यह सच है कि जीवन में और दुनिया में मनुष्य के, मनुष्य के रूप में मूलभूत मानवीय अधिकारों के हनन का सिलसिला बहुत पुराना है। कभी रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर, कभी कथित वंश परंपरा के आधार पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के अधिकारों का लगातार उल्लंघन करता आया है। भारत में तो मानवीय अधिकारों के उल्लंघन का रिकार्ड बहुत खराब है। मूल रूप में मनुवादी वर्ण व्यवस्था ही मनुष्यता के खिलाफ इतिहास का सर्वाधिक क्रूर और अंतरतम् तक बेचैन कर देने वाला षड़यंत्र है। मनुष्य को चार वर्णों में विभाजित कर के देखा जाये? मनुष्यता का इससे अधिक अपमान और क्या हो सकता है? मनु ने शूद्रों और स्त्री जाति के लिए जिन शब्दों और धारणाओं का इस्तेमाल किया उससे किसी भी समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। लेकिन किसी भी जीवंत समाज में आत्मपरीक्षण और सुधार के लिए गुंजाइश बची रहती है। हमारा समाज भी एक जीवंत समाज है और इसीलिए यहां भी समय-समय पर चेतना की अलख जगाने वाले सामाजिक आंदोलन हुए आज हम एक लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सम्माजनक ढंग से रह रहे हैं। पर यह आधा सच है। आधा सच यह है कि आज भी हमारे यहां बड़ी संख्या में बाल श्रमिक हैं, कन्या जन्म दर का प्रतिशत घट रहा है, खेतिहर श्रमिकों को समाज में सम्मानजनक स्थान हासिल नहीं है। स्त्रियां और दलित जातियां अभी भी समाज में बराबरी के हक के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन कुल मिलाकर पिछली सदी के मुकाबले स्थिति में काफी सुधार हुआ है। दरअसल हमारी जड़ों में जो हमारे संस्कार हैं वे हमारे रास्ते में सबसे ज्यादा बाधक हैं। हमारी कहावतें तक ऐसी हैं जो कि हमें अन्याय का प्रतिकार करने से रोकती हैं। ऐसी ही एक कहावत है- ''भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं।'' ााहिर है कहावतें तो जनमानस की मन, स्थिति का निचोड़ होती हैं, उन पर तर्क-कुतर्क नहीं किए जा सकते, लेकिन इससे यह तो पता चलता है कि हम एक तरह की आस्था के साथ अन्याय को बर्दाश्त करते चलते हैं कि देर से ही सही पर एक दिन न्याय ारूर हमारा दरवाजा खटखटायेगा, और उसके लिए भी हमें कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह काम भी भगवान करेगा। यह एक सामंतवादी, मनुवादी संस्कार है जो कि सामंतवाद के पोषकों द्वारा समाज में एक धारणा के रूप में स्थापित किया गया है। सामंतवाद मानवीय अधिकारों का पहली पंक्ति का शत्रु होता है। मैंने पंजाब में कई स्त्रियों द्वारा अपने बच्चों को राजाओं की कहानियां सुनाते हुए सुना है कि- ''फलां राजा की तीन सौ पैंसठ रानियां थीं, उसे सड़क पर जो भी सुंदर स्त्री दिखती थी, वह उसे उठा लाता था''- और यह कहानियां मांओं द्वारा बच्चों को बड़े गर्व के साथ सुनाई जाती थीं। यह किस्सा सिर्फ पंजाब का ही नहीं है बल्कि लगभग पूरे गरीब हिंदी प्रदेश और इतर राज्यों में भी एक समान है। सामंतवाद के अवशेष अभी तक हमारे आस-पास बड़ी संख्या में बिखरे पड़े हैं और ये मानवीय अधिकारों की गरिमा और उनकी सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है। ारूरत है इन अवशेषों को इकट्ठा करके हिंद महासागर में उलट दिया जाए ताकि ये शेष जनसामान्य के महासागर से इनका कोई नाता न रहे।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में यह जो वैश्वीकरण, ग्लोबलाईजेशन हुआ है, इसके भीतर झांककर देखें तो एक खतरा जो दिखाई देता है वह यह कि कहीं सामंतवाद अपना रूप बदल कर लौट तो नहीं रहा? मनुस्मृति में एक मोदार बात है, वह यह कि पैसा सिर्फ उसी व्यक्ति के पास जमा किया जा सकता है जिसका रंग गोरा हो। क्या हम भी यही नहीं कर रहे हैं। अपनी अकूत धन संपदा, अपना सारा खााना चाहे वह पैसा हो या हमारा ज्ञान भंडार। कहीं हम सिर्फ गोरी चमड़ी वालों के लिए ही तो खर्च नहीं कर रहे हैं। उनके उत्पादन, उनके जीवन मूल्य हमें अपने उत्पादन और अपने जीवन मूल्यों से बेहतर लगने लगे हैं। यह एक खतरनाक संकेत है। नव-पूंजीवाद में कहीं नव-सामंतवाद भी छिपा हुआ है और इसकी पड़ताल करना हमारी पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए। जब तक हमारी प्राथमिकता में हमारा आदिवासी, हमारा खेतहिर श्रमिक, वे संघर्षशील स्त्रियां जिन्हें अभी तक उनका उचित और सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है, और बाल मजदूर ये सब नहीं होंगे तब तक मानवीय मूल्यों के हनन की सारी बातें एक तरह का निरर्थक संवाद बन कर ही रह जाएंगी। नीरा राडिया और करीना कपूर हमारे रोल माडल नहीं हो सकते, मेधा पाटकर और अरुंधति राय अवश्य हो सकती हैं, और हैं। अजब-गजब बात यह है कि नव-पूंजीवाद और धार्मिक उन्माद दोनों एक साथ हमारे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर रहे हैं और यह संयोग नहीं है, बल्कि सुनियोजित है। हम एक तरह के सामंतवाद से मुक्त होकर दूसरी तरह के सामंतवाद में धंस रहे हैं। सामंतवाद ने नव-उदारवाद का मुखौटा पहन लिया है और हम मुखौटे को चेहरा समझने की भूल कर रहे हैं। ऐसे में सब से ज्यादा संकट उस समाज के लिए होता है जो अभी कल तक आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ था। जो नैतिक सवाल उसे सब से ज्यादा परेशान करता है वह यह कि अगड़ी जातियों और आर्थिक रूप से समृध्द होकर कहीं वह भी तो शोषकों के समाज का हिस्सा नहीं बन जाएगा? ठीक इसी जगह पर आकर उसे ठहरने, सोचने और फिर सही दिशा की तलाश करने की जरूरत होती है। ऐसे ही नाजुक समय में उसे दिग्भ्रमित करने वाली शक्तियां सक्रिय होती हैं। डर इस बात का है कि कहीं अन्ना हजारे का आंदोलन इसी सुनियोजित षड़यंत्र का एक हिस्सा तो नहीं, क्योंकि उसमें खाते-पीते लोगों के शोषण की बात तो है पर भूखे-नंगे लोगों की तरफ उसका ध्यान जरा भी नहीं है। वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारे तो हैं लेकिन उस भारत की असली तस्वीर के प्रति किसी तरह की संवेदना नार नहीं आती, जिसमें किसानों की आत्महत्याएं हैं या पिसता हुआ निम्न मध्य वर्ग है। भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह का भ्रष्टाचार है और राष्ट्र का नाम लेकर जनता को गुमराह करना, मानवीय मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है। भारतीय मध्य वर्ग की स्थिति मुझे प्रख्यात मलयालम कवि अय्यप पणिकर की इस कविता की तरह लगती है:-
''हंसने मात्र के लिए बनाया एक पुतला, उसे रोने की इच्छा होती, तो भी, हंसी बस हंसी ही आतीइसी तरह निर्माण किया गया है इसका पंडितगण कहते हैं।''
ttejinder.gagan@gmail.com


 
 

Thursday 1 December 2011

३० नवम्बर (आज का मेरा लेख )


पाश की प्रसिध्द कविता 'भारत' की आरंभिक ये पंक्तियां हैं-
''भारत मेरे सम्मान का सब से महान शब्दजहां कहीं भी प्रयोग किया जाए बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।'' इसी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं:-

''भारत के अर्थ, किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं, वरन् खेतों में दायर हैं, जहां अन्न उगता है, जहां सेंध लगती है।''
पहले भारतीय होने का एक सीधा-सच्चा अर्थ होता था- सहज और निश्छल, कि ''मैं भारतीय हूं और भारतीय होने पर मुझे गर्व है।'' आज भी है, पर फिर भी पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में हमारा भारतीय होना एक तरह के विखंडन की तरफ बढ़ता हुआ नार आ रहा है। कई बार यह सवाल पूछने का मन करता है कि आप कौन से भारतीय हैं? सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह वाले भारत के जो देश को विदेशों में बेचकर अस्थायी तौर पर विदेशी पूंजी कमाने में व्यस्त हैं या कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले जो कि अपनी गुप्त किताबों में सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग को ही भारतीय मानते हैं, देश के नव-धनाडय वर्ग के आधुनिक छात्र जो तथाकथित ऊंचे और सचमुच महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं और जिन्हें अपने घर का खाना अच्छा नहीं लगता, या फिर भारतीय उन को कहा जाए जिनके घरों में अन्न का दाना नहीं है और न ही आने की कोई उम्मीद बची है। आप कौन से भारतीय हैं? यह सवाल हमारे समय का सबसे अहम् और जरूरी सवाल होना चाहिए।
देश के आंतरिक स्रोतों से देश की आय को बढ़ाने की कोशिश करने की जगह हम वालमार्ट को बुला रहे हैं कि ''आओ देखो हमारे पास कितने साधन हैं, हमारे पास खनिज है, हमारे पास भूमि है, हमारे पास जनसंख्या है, हमारे पास नदियां हैं जिनमें पानी बहता है, हमारे पास खेती की और उद्योग की अपनी एक परम्परा है- पर हम क्या करें? हम नाकारा हैं- 'तुम आओ और हमारा उध्दार करो', हमारे मध्यवर्ग को तुम से बहुत प्यार हो गया है।''
हैदराबाद के इंस्टीटयूट ऑफ चार्टर्ड फायनेंशियल एनालिस्ट ऑफ इंडिया में अर्थशास्त्र के अनुसंधानकर्ता ईशान चौधरी और अनुगीत सलूजा का कहना है कि- ''सर आप देखिएगा, आने वाले पांच वर्षों में वाल्मार्ट पूरे देश में छा जाएगा, हमारे खुदरा व्यापारी और छोटे-छोटे दुकानदार वालमार्ट से सहायता की भीख मांगेंगे, वालमार्ट के प्रतिनिधि हमारे किसानों को बताएंगे कि तुम्हें क्या उगाना है और कैसे उगाना है, हमारे कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधान केन्द्र अप्रासंगिक हो जाएंगे।'' क्या यह तथ्य हास्यास्पद नहीं कि  वालमार्ट के पास अरबों डॉलर से अधिक की पूंजी है, जिस पर हमारे शासकों को गर्व है, क्या यह बात अपने आप में खतरनाक नहीं है? वालमार्ट हमारे लिए नया भारत बनाएगा या हमारे बीच बची हुई भारतीयता को भी हम से छीन कर ले जाएगा, इस बात का पता तो अगले कुछ वर्षों में ही चलेगा। पर फिलहाल यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या हमारे नीति निर्धारिकों को इस बात का पता नहीं है कि अपनी पूंजी हमारे यहां लगाने वाले देश उस वक्त अपनी पूंजी को वापिस अपने देश ले जाएंगे, जब यहां लगाई गई पूंजी पर वे लाभ कमाने लगेंगे। ईशान चौधरी के अनुसार, उस लाभ की कोई हिस्सेदारी विकासशील राष्ट्रों को नहीं मिलती। क्या हम इतने नाकारा, नासमझ और निरक्षर हैं कि हम यह नहीं समझ सकते कि इस तरह हमारी घरेलू कंपनियों का विकास अवरूध्द हो जाएगा और हम पूरी तरह से उनके चंगुल में कुछ यों ही फंस जाएंगे जैसे कि विदर्भ के किसान ब्याजखोरों के जाल में फंसकर आत्महत्या कर लेते हैं। हमें उन्हीं से उधार ले कर अपने अर्थतंत्र में स्थायित्व लाना होगा। हम किसके दबाव में काम कर रहे हैं यह तो समझ में आता है पर क्यों? इसे समझना थोड़ा पेचीदा है। दुर्भाग्य से हमारा अंर्तविरोध यह है कि अपने खेतों में सेंध लगाने वाले की पहचान तो हमें है पर उनको पकड़कर कटघरे में खड़ा करने की जगह हम उन्हें दोबारा चुनकर अपनी संसद में भेजने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी त्रासदी है।
दरअसल हमारी विशाल युवा पीढ़ी का एक छोटा हिस्सा ही देश के प्रबंधन में शामिल हैं। युवा-वर्ग का एक बड़ा हिस्सा धर्म के अंधेरे में खोया हुआ है तो एक दूसरा बड़ा हिस्सा टेलीविजन के 'बिग बॉस' जैसे सीरियलों की चपेट में अंधा है, उसे पता ही नहीं कि वह क्या कर रहा है और किस तरह अपने साथ देश के एक बड़े वर्ग को आत्मघाती प्रवृत्तियों की ओर खींच रहा है। शेष बचा हुआ तीसरा हिस्सा जो कि देश के प्रबंधन में शामिल है, उसका पचास प्रतिशत वालमार्ट की आरामगाह में बैठना चाहता है। तो परेशान करने वाला सवाल यह है कि यह जो तीसरे हिस्से का भी आधा हिस्सा है, इसे बचाकर कैसे रखा जाए? इसकी आवाज को कैसे पूरे अवाम की आवाज बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है कि खेतिहर श्रमिकों और विशेष रूप से उनके युवा वर्ग और दलितों और आदिवासियों को संगठित कर उनमें इस बात के प्रति चेतना का विस्तार किया जाए। कुछ इस तरह कि उनकी समझ में आए कि उनके दुश्मन कहीं दूर यूरोप और अमेरिका में नहीं बैठे हैं, बल्कि अपने आसपास ही हैं, जो कि दुर्भाग्य से अपने आप को साक्षर और पढ़ा-लिखा मानते हैं।
यह काम वामपंथी पार्टियां कर सकती हैं शर्त सिर्फ यही है कि वे अपनी पिछली गलतियों को न दोहराएं और दक्षिणपंथी पार्टियों द्वारा अपने विरुध्द किए जाने वाले दुष्प्रचार का दृढ़तापूर्वक जवाब देते हुए जनमानस में अपनी एक नई पहचान और विश्वसनीयता बनाएं। यों तो यह काम सभी राजनैतिक दलों को करना चाहिए पर चूंकि वामपंथी दलों की स्वाभाविक प्रवृत्ति, उनकी मूल सोच श्रमिकों और मजदूरों की पक्षधर है इसलिए उनसे इस बात की अपेक्षा अधिक की जाती है।
यह समझ पाना मुश्किल है कि तकनीक के इतने विकास और जनसंख्या के अनुपात में अनाज के उत्पादन में भी सामुनिपातिक वृध्दि के होते हुए, जमीन के मालिक, जमीन के गुलाम कैसे बन गए। क्या यह उसी कहानी का दोहराव नहीं है जो पहिले हमारा शासक वर्ग और शहरी व्यापार जगत आदिवासियों के साथ कर चुका है। विध्वंस का दोहराव क्या कोई देश बर्दाश्त कर सकता है? प्रश्न बहुत हैं- पर उन्हें सुनने वाला कोई दिखाई नहीं देता- कहीं अमूर्त में हैं, पर वह जहां भी है एक दिन उसे आम आदमी के इन सब सवालों का जवाब देना होगा। फिलहाल तो एक बार फिर पाश के शब्दों का ही सहारा लेना होगा- ''तुझ से दिल का सच कहना, दिल की बेअदबी है सच की बेअदबी है तुझ से गिला करना इश्क की हेठी है जा तू शिकायत के काबिल हो कर आसभी तो मेरी हर शिकायत से तेरा कद बहुत छोटा है।''
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Wednesday 23 November 2011

आज का मेरा ४ अंक (देशबंधु )




रघुवीर सहाय की एक छोटी कविता है, 'रूमाल', जो इस तरह है- ''वह मेरा रूमाल कहां है, कहां रह गया? कहीं मैं उसे छोड़ न आया हूं कुर्सी पर? वह कितना मैला था, उस से मैंने जूता, नाक, पसीना और कलम की निब पोंछी थी।''
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति  मार्कण्डेय काटजू की बात का संकेत भी इसी रूमाल और इसी निब की तरफ है। आज के परिप्रेक्ष्य में आप निब के साथ कैमरा इन एक्शन जोड़ सकते हैं।
न्यायमूर्ति काटजू इन दिनों मीडिया के कटघरे में हैं। होना इसके विपरीत चाहिए था। जब-जब भी भारतीय मीडिया के आचरण पर कोई टिप्पणी की जाती है पूरा मीडिया एक तरह की चीख पुकार और शोर में तब्दील हो जाता है और ''सेल्फ रेग्युलेशन'' अथवा स्वयंभू अनुशासन की बात कहने लगता है। यह सच है कि मीडिया पर अनुशासन थोपना किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक व्यवस्था में शुभ संकेत नहीं है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मीडिया को व्यापक समाज के प्रति गंभीर और जिम्मेदार होना चाहिए। दिक्कत यह है कि हमारे लगभग सभी बड़े मीडिया घराने उद्योगपतियों द्वारा संचालित हैं और ये उद्योगपति मीडिया की चादर लपेटकर अपने व्यापारिक हित साधने का काम करते हैं। समाज के व्यापक हित की चिंता उन्हें नहीं होती। अधिकतर मीडिया घरानों की राजनैतिक और वैचारिक प्रतिबध्दताएं तक नहीं है- जो राजनैतिक दल उनके नाम परमिट जारी कर दे, वे उसके पाले में जा बैठते हैं। वर्ष 1982 में भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के प्रोफेसर भुवनेश बंधोपाध्याय ने बताया था कि दुनिया भर का मीडिया, दुनिया के सिर्फ दस प्रतिशत लोगों के हाथ में है और वे ही यह तय करते हैं कि शेष नब्बे प्रतिशत जनता को क्या दिखाया जाए, और क्या नहीं। न्यायमूर्ति काटजू ने यही तो कहा कि हमारे इलेक्ट्रानिक चैनलों में समाज का अस्सी प्रतिशत हिस्सा उपेक्षित है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज और उसकी मुख्य चेतना का चेहरा तभी मुकम्मिल होता है जब उसमें हमारे आदिवासी समाज का चेहरा शामिल हो और फिर उसके बाद एक क्रम है, जिसमें दलित है, समाज के पिछड़े वर्गों के अन्य लोग हैं, धार्मिक अल्पसंख्यक हैं और स्त्री हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का पर्दा भारतीय नंजर नहीं आता। यह प्रभावशाली लोगों का माध्यम बन गया है। जो प्रभावशाली लोगों द्वारा ही संचालित है।
दूरदर्शन अपनी एक पक्षीय, ऊबाऊ और लगभग हास्यास्पद रिपोर्टिंग के कारण समाज द्वारा बहिष्कृत है। दूरदर्शन के अधिकारी दिल्ली में मंडी हाउस की ऊंची छत पर खड़े होकर रायसीना हिल्स में शास्त्री भवन की बैरकों से अपने लिए आदेश लेते हैं और स्वयं को दुनिया का सब से बड़ा मीडिया-विशेषज्ञ मानने के लिए अभिशप्त हैं। अपनी पीठ खुद ही लगातार थपथपाकर उनकी पीठ सूज आई है और हाथ टूटने की कगार पर हैं।
एक तरफ आस्था और संस्कार जैसे चैनल हैं जो आज के इस वैज्ञानिक चेतना के समय में दुनिया को माया से दूर रहने का संदेश दे दे कर खूब माया कमा रहे हैं और दूसरी ओर ए.एक्स.एन., ंजूम तथा वी.और एम. जैसे चैनल हैं जो दिखने को तो आस्था और संस्कार चैनलों से अलग दिशा में चलते हैं पर इनका उद्देश्य एक ही है, सिर्फ पैसा-कमाना और इन दोनों ही प्रजातियों के चैनलों का भारतीय श्रमिक वर्ग और भारत के आधुनिक चेतना सम्पन्न वर्ग के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। जिस तरह विश्व के विकसित देश, तीसरी दुनिया के देशों के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं, कुछ-कुछ वैसा ही व्यवहार देश के आर्थिक रूप से उच्च वर्ग द्वारा देश के मध्य व निम्न वर्ग के साथ किया जाता है। इसके लिए वे मीडिया का इस्तेमाल अपने हक में करते हैं। जबकि यह काम मीडिया की आधारमूल मूल्य संरचना के खिलाफ है। टेलीविंजन हमारे सामने जो परोस रहा है उसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच, आदमी तथा औरत के बीच अभिभावकों और बच्चाें के बीच, और भाईयों के बीच जो संबंध दिखाए जा रहे हैं उन सबका आधार व्यवसायिक है, मानवीय नहीं यही समस्या की जड़ है।
अधिकतर कथित पारिवारिक सीरियलों में स्त्री जाति के करवा-चौथी चेहरों को जिस सिंदूर, मंगलसूत्र, माथे पर बड़ी सी बिन्दी और जेवरों से लबरेंज देह में दिखाया जाता है, वह उन्हें वापिस पुरुष की गुलामी में धकेलने जैसा है। यह देश की उन हजारों-लाखों स्त्रियों का अपमान है जो किसी तरह पढ़-लिखकर या गांव-देहातों में, खेतों में शारीरिक श्रम करते हुए अपने पैरों पर खड़े होने का साहस दिखा रही हैं। क्या यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती कि किसी भी सीरियल में कोई भी मुख्य पात्र एक मोची नहीं है, बंजारा नहीं, दलित-स्त्री नहीं है, अल्प-संख्यक नहीं है, ठेले पर आलू-प्याज बेचने वाला नहीं है, घर में बर्तन-झाड़ू पोंछा करने वाली स्त्री नहीं है, पेट्रोल पंप में गाड़ियों में पेट्रोल डालने वाला लड़का नहीं है, बस का कंडक्टर नहीं है, किसी दफ्तर का चपरासी नहीं है, साईकिलों के टायरों की टयूब में पंक्चर लगाने वाला नहीं है। यह हमारा वास्तविक समाज है, जिसका कोई प्रतिनिधित्व हमें किसी चैनल पर नंजर नहीं आता। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इन चैनलों के जो नीति निर्धारक हैं, उनके भीतर 'द्रोणाचार्य माईन्ड सेट' काम करता है, जो समाज के एक बड़े वर्ग को नाकारा मान कर चलता है। हमारे सामाजिक मूल्यों में शारीरिक श्रम के काम को एक तरह की दोयम या हेय दृष्टि के साथ देखा जाता है, शायद इसीलिए हमारे टेलीविजन चैनल अपने पर्दे पर श्रमजीवियों को 'महानायक' का दर्जा नहीं देते जबकि मार्केटिंग जोकर या दलाल उनके आदर्श होते हैं।
भारतीय टेलीविंजन में सब कुछ बिकने के लिए है। एक-एक सेकेण्ड की अपनी कीमत है। सारा खेल बिक्री का है। न्यूज चैनल आने के बाद बिक्री का यह खेल तेज हो गया है। युवा मीडिया विशेषज्ञ वर्तिका नंदा के शब्दों में- ''आम आदमी जिस टेलीविान को अपने घर में बैठ कर देखता है। उसमें सपने, सच और भावनाएं सभी कुछ बिकाऊ है। राजनीति, सेक्स, अपराध, समलैंगिकता सभी शो-पीस की तरह सजे हैं और इन्हें नए पैकेज में ढालकर बार-बार पहिले से भी ऊंचे दाम पर बेच दिया जाता है।''
तो प्रश्न यह है कि न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अगर यह कहते हैं कि हमारे इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का एक सामाजिक दायित्व होना चाहिए और उन्हें देश के जन-सामान्य की उभरती हुई सामाजिक-वैज्ञानिक चेतना का एक हिस्सा बनना चाहिए तो, इसमें गलत क्या है? मीडिया का संचालन एक सामाजिक जिम्मेदारी है और इसे निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता। जो लोग-स्व-नियंत्रण की बात करते हैं उन्हें यह समझना होगा कि अगर देश की संसद, न्यायपालिका और प्रशासन नियमों और मूल्यों के एक दायरे में रहकर काम करने के लिए प्रतिबध्द हैं तो मीडिया को अछूता कैसे छोड़ा जा सकता है। स्व-अंकुश का एक अर्थ निरंकुश होना भी होता है।
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Wednesday 16 November 2011

आज का मेरा लेख (देशबंधु) ......



एक कविता की पंक्तियां हैं- ''वे सब चुप बैठे थेवे चुप बैठे रहने के लिए ही इकट्ठा हुए थेउन्होंने तय किया था कि वेएक-दूसरे के फटे-कपड़ों के बारे में बात नहीं करेंगे
 उन्होंने तय किया था कि वे एक दूसरे के खाने के बारे में बात नहीं करेंगेअपने-अपने घरों में वे चाहें कंकड़ खायें और चाहे खाएं कीड़ेवे एक दूसरे के सुख-दु:ख की बात की बात तो बिलकुल नहीं करेंगेवे सिर्फ भली और भोली बातें करेंगेऔर किसी को यह नहीं बताएंगे कि उनके दुख का जिम्मेवाररहस्यमयी व्यक्ति कौन हैऔर फिर अगली मुलाकात तक वे उसी व्यक्ति के साथ रहेंगे जिसके दांत नजर नहीं आते''
सार्क यानि की दक्षेस देशों का सम्मेलन पिछली दस और ग्यारह नवम्बर को मालद्वीव में सम्पन्न हो गया। सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ राज गिलानी को ''भला आदमी'' कहा और बदले में युसुफ राज गिलानी ने भी डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में कुछ अच्छे शब्द कहे। दोनों देशों की आंतरिक स्थिति को देखा जाए तो इन दोनों ही प्रधानमंत्रियों को, उनके इस कठिन समय के दौर में कुछ 'अच्छे' शब्दों की बेहद ारूरत थी। ''मैं तुझे भला कहूं और तू आखि मोय'' की मुद्रा में दो भले लोग अपने-अपने देश के संकटों में लौट आए।
दरअसल, इस उप-महाद्वीप के इतिहास के साथ यह एक विचित्र घटनाक्रम था। दिसम्बर 1985 में सार्क देशों के इस संगठन की स्थापना इस उम्मीद के साथ की गई थी कि इस क्षेत्र की करीब डेढ़ अरब जनता की आवांज को दुनिया में अधिक गंभीरता के साथ सुना जा सकेगा लेकिन इसकी जो पहली शर्त होती है दुर्भाग्य से उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वह यह कि उनकी आवाज का सुर और तर्क एक हो और अपने-अपने देश की व्यापक गरीब जनता के पक्ष में हो। होना यह चाहिए था कि सार्क के सभी देश मिलकर आपसी सामंजस्य से एक ऐसी आर्थिक नीति पर काम करते जिससे अमेरिका और यूरोपीय संघ पर उनकी निर्भरता कम होती। दुर्भाग्य से 1989 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और यह दुनिया एक तरफ झुक गई। संयुक्त राज्य अमेरिका हमारी दुनिया का अघोषित तानाशाह बन बैठा। उसका बाजार दुनिया भर में फैल गया। चीन, कोरिया, जापान आदि की प्रतिद्वंदिता के अलावा विश्व में उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं बचा। इन देशों के समर्पित लेकिन 'बंद' मीडिया ने अपने राष्ट्रों का साथ नहीं दिया। भारत में तो जो मीडिया के द्वार खुले तो ऐसा लगा कि जैसे अमेरिकी बाजार ही यहां आ कर बैठ गया विश्व लोन मेले में अपना बड़ा सा 'शो-रूम' ले कर। सार्क देशों की बैठक में होना यह चाहिए था कि हम अपनी संयुक्त अर्थनीति पर विचार करते और उसके क्रियान्वयन के आंतरिक तरीके ढूंढते। पर इन देशों की निगाहें अपने ऊपर कम और अपने पर्यवेक्षक राष्ट्रों पर अधिक टिकी रहती हैं। सार्क राष्ट्रों के पर्यवेक्षक देश हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीयन संघ के सदस्य राष्ट्र और दक्षिण कोरिया। यह दुखद है कि सार्क देशों का सम्मेलन अपना एक अलग आभिजात्य निर्मित करने का प्रयास भर है, जिसका न कोई उपयोग है और न ही किसी तरह की आवश्यकता। उनका औचित्य तो तब पूरा होगा जब वे एक साथ मिलकर अपने आंतरिक मामलों पर चर्चा करें और इस पूरे उप-महाद्वीप की गरीब जनता के सर्वांगीण विकास के लिए जिसमें अन्न के साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य भी शामिल हों, कोई कारगर रास्ता तलाश करने की कोशिश करें। फिलहाल तो इस सम्मेलन में एक तरह की पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव नार आता है।
श्रीलंका में जिस तरह तमिलों के नागरिक अधिकारों का हनन किया गया, पाकिस्तान द्वारा जिस तरह आतंकवाद को प्रश्रय दिया जा रहा है और भी बहुत सारे ऐसे मसले जिन पर गंभीरतापूर्वक सकारात्मक बातचीत होनी चाहिए, उन पर एक ठंडी बातचीत के साथ, इस तरह के सम्मेलन समाप्त हो जाते हैं और इन सभी सदस्य देशों की गरीब जनता के लाखों रुपए तीस्ता नदी में बह जाते हैं। सम्मेलन के तुरंत बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्र राजपक्षे का सुर बदल जाता है। वे कहते हैं कि चीन हमारा मित्र राष्ट्र है और हम आपसी सहयोग को बढ़ाएंगे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अपने देश में लौट कर सेना-प्रमुख कयानी से मिलते हैं। नेपाल सरकार की विदेश नीति अपने अंर्तविरोधों के चलते कभी इस पक्ष तो कभी उस पक्ष, झुकती हुई नंजर आती है।
यह त्रासद है कि इस पूरे सम्मेलन में पिछले कुछ समय में विश्व में घटित राजनैतिक उथल-पुथल का कोई 'नोटिस' नहीं लिया जाता। यह कहा जा सकता है कि मिस्र या लीबिया में जो हुआ वह उनका अपना आंतरिक मामला था, लेकिन विश्व-राजनीति से अछूते रहकर आप अपना अस्तित्व कैसे बनाए रख सकते हैं? कर्नल गद्दाफी के गोलियों से छलनी मृत शरीर का फोटो अपने आई-पैड पर देखकर खिलखिलाती हुई हिलेरी क्लिंटन का चेहरा मेरी दृष्टि में विश्व का सब से अश्लील चेहरा था। यह माना कि गद्दाफी लंबे समय तक अपनी जनता का विश्वास जीत कर एक क्रूर तानाशाह में बदल गए थे पर इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि एक लंबे समय तक वे अपने देश की अस्मिता की आवाा थे। पर हो यह रहा है कि अमेरीकी मीडिया जो कहता है उसे प्राथमिक शाला के विद्यार्थियों की तरह विकासशील राष्ट्रों का मीडिया जिनमें सार्क के देश भी शामिल हैं, पांचवी कक्षा के पाठ की तरह रटने लगता है।
यह न केवल दुखद है अपितु भयावह भी है, अगर आज इस प्रकृति पर अंकुश न लगाया गया तो आने वाले वर्षों में विश्व को और अधिक खतरनाक रास्तों से होकर गुजरना होगा। आतंकवाद के खतरे में अगर तेल की और पश्चिमी विकसित राष्ट्रों की कोई भूमिका हम नहीं देख सकते तो निश्चित ही यह हमारा दृष्टिदोष होगा। सार्क देशों की बैठक में, जिसकी अफगानिस्तान भी एक सदस्य राष्ट्र है, उसकी राजनैतिक व सामरिक स्थिति के बारे में कोई चर्चा न हो तो यह हमारी भूमिका को संदिग्ध बनाता है।
सिर्फ इस तरह अपनी बैठक खत्म कर देने से बात नहीं बनेगी कि 'जेंटलमैन द काफी वाज गुड।' हमें यह जान लेना चाहिए कि जेन्टलमैन पर्यवेक्षक शरीफ इंसान नहीं है और 'द टेस्ट ऑफ द काफी इज नॉट दैट गुड'। काफी का स्वाद अच्छा नहीं था।

Wednesday 9 November 2011

देशबंधु में प्रकाशित आज का मेरा लेख


प्रख्यात अमेरिकी पाप गायिका लेडी गागा ने पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा के बुध्द इंटरनेशनल सर्किट में हुई फार्मूला-वन कार रेस में जो गीत गाए
उनका आशय कुछ इस तरह था कि 'अपने हाथ ऊपर उठाओ, तुमने इस दुनिया में एक 'सुपरस्टार' की तरह जन्म लिया है और ईश्वर ने तुम्हें अपनी संपूर्णता में तैयार किया है'- सुनने में और पढ़ने में यह पंक्तियां मन को लुभाने वाली लगती हैं। यह आभास भी होता है कि आप डेल कार्नेगी या दीपक चोपड़ा की कोई किताब पढ़ रहे हैं। यह समय शब्दों के छल का समय है। शब्दों के एवज में आप धन कमा रहे हैं। यह वही लेडी गागा हैं जिन्होंने कुछ समय पहिले अपने जिस्म पर बकरे का मीट पहनकर मंच पर भड़कीले गीत गाए थे और लोग पागलपन में झूम उठे थे। लेडी गागा ने स्वयं एक दार्शनिक अंदांज में कहा है कि 'मैं पागलपन की सीमाओं को छू सकती हूं और एक साथ, एक ही समय में, एक सौ स्त्रियों का जीवन जी सकती हूं।' वही पागलपन हमारे देश की एक पूरी पीढ़ी के मन मस्तिष्क पर छा गया है। यह सवाल सिर्फ सांस्कृतिक मूल्यों का नहीं है, उससे आगे का है। संस्कृति के नाम पर पैसा कमाने और फिर लुटाने का गोरखधंधा है। एक ऐसे राज्य में जो कि अपनी गरीबी, अशिक्षा और शर्मनाक वर्ण-व्यवस्था के पोषकों के लिए जाना जाता है, दस अरब के खर्च से तैयार बुध्द इंटरनेशल सर्किट, जो कि गरीब किसानों से ली गई लगभग 875 एकड ज़मीन पर फैला है, में यह आयोजन किया गया जो कि नव-धनाढय वर्ग के अश्लील आभिजात्य प्रदर्शन से अधिक कुछ नहीं था। इसे स्थितियों की एक विडंबना ही कहा जाएगा कि जो लोग विजय मलैया अथवा सुब्रत राय के इस तरह के आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और इसे देश के लिए एक तरह का गौरव मानते हैं, वे ही लोग अन्ना हजारे के लिए रामलीला मैदान में भी पहुंच जाते हैं। हमारा मध्यवर्ग सब्जियों में आलू और प्याज की तरह हो गया है, उसका अपना कोई चरित्र नहीं है। मीडिया का अधिकांश हिस्सा भी उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है क्योंकि यह उसके व्यवसाय के साथ जुड़ा हुआ है। घृणा कोई बुरी चीज नहीं है अगर वह विजय मलैया या सुब्रत राय या शाहरूख खान की जीवन-पध्दति और उनके मूल्यों से की जाए। किसी भी देश के जीवन में जिस तरह प्रतिक्रियावादी ताकतों और सांप्रदायिक शक्तियों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए ठीक उसी तरह भ्रामक स्थितियों के लिए भी कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
एक तरह की विश्वसनीयता चाहे वह अपने राजनैतिक नेतृत्व से हो अथवा गैर-राजनीतिक सामाजिक संगठनों से, हमारा गरीब समाज उसे लगातार खोता चला जा रहा है। एक समय था कि बाबू जगजीवन राम देश के कृषि मंत्री थे। वे अगर सिर्फ दिल्ली के आकाश में बादल देखकर यह कह देते थे कि इस वर्ष मानसून अच्छा आएगा तो तमिलनाडु में कोयम्बटूर से लेकर, गुजरात में भुज और छत्तीसगढ़ में सरगुजा जिले के पटवारी और ग्राम सेवक तक उनकी बात पर भरोसा करते थे और किसानों को बताते थे कि इस वर्ष मानसून अच्छा आएगा। आज स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेकसिंह अहलुवालिया, चीख-चीख कर कह रहे हैं कि- ''हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है'' और हालत यह है कि उनके ''विश्वासी'' कहीं ढूंढे नहीं मिलते। कुछ अकादमिक अर्थशास्त्रियों और विश्व बैंक के कुछ अधिकारियों के अलावा और किसी को उनकी बात पर भरोसा नहीं होता। क्यों? संभवत: इसलिए कि प्रधानमंत्री के विकास के माडल की लोगों के दैनंदिन जीवन में कोई हिस्सेदारी नहीं है।
जब आम आदमी को अपनी जेब में अपना चेहरा छिपाने की जगह न मिल रही हो तो वह दूसरों की जेब में झांकना शुरू कर देता है। शायद वर्तमान पूंजीवादी अर्थतंत्र, जिसने समाजवाद और लोकतंत्र का मुखौटा पहन रखा है, यही चाहता है। इसी प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए फार्मूला वन जैसी कार-रेस प्रतियोगिताओं के आयोजन किए जाते हैं और लेडी गागा जैसी गोश्त का परिधान पहनी गायिकाओं को अमेरिका से बहन मायावती के राज्य तक, गौतमबुध्द नगर तक बुलवाया जाता है। पता नहीं बुध्द इस बार मुस्कुराएं होंगे या नहीं?
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पोषक हमारे राजनेता एक तो कुछ बोलते नहीं, एक रहस्यमयी चुप्पी अपने आस-पास घेरे रखते हैं और जब बोलते हैं तो वे खुद ही सुनते हैं और खुद ही समझते हैं। देश का आम आदमी उनकी भाषा को विश्वसनीय नहीं मानता और उन्हें कोई यह बताने वाला नहीं है कि उनकी यह बात, उन्हें कितनी भारी पड़ने वाली है। यह सेबेस्टियन वेटल की द्रुतगति से चलने वाली कार चलाते हुए कानों में ईयर फोन लगाकर लेडी गागा के गीत सुनने का समय नहीं है।
यह सच है कि प्रतिगामी शक्तियों की तरह अतीतजीवी नहीं होना चाहिए। बार-बार पीछे मुड़कर देखना अच्छी बात नहीं है। अपनी भाषा एवं संस्कृति पर बहुत गर्व होते हुए भी, स्थितप्रज्ञ हो जाना बुरा है और अंतत: बेहतर भविष्य ही हमारा ध्येय है, लेकिन यह बेहतर है क्या? और क्या यह बेहतर सिर्फ कुछ चुनिन्दा लोगों के लिए है? यह देखना और सबको साथ लेकर चलना यह हमारी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी है।
कई बार इस बात का धोखा होता है कि कहीं जहाँगीर के शासनकाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ उनकी शर्तों पर व्यापार का कोई दस्तावेज तो तैयार नहीं किया जा रहा है। देश में एक तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फार्मूला वन कार दौड़ प्रतियोगिता हो रही हो और देश के खेलमंत्री को उसके लिए आमंत्रण तक न भेजा जाए। क्या यह शर्मनाक नहीं है? सच बात तो यह है कि खेल मंत्रालय की अनुमति के बिना यह आयोजन हुआ कैसे? इससे पहले भी हमारे कुछ क्रिकेट खिलाड़ी इस तरह का मजाक कर चुके हैं कि वे राष्ट्रपति से पद्म पुरस्कार लेने नहीं पहुंच सके, क्योंकि वे 'भूल' गए थे। यह एक तरह की धृष्टता है और यह इसलिए आई है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपने आप को लोकतांत्रिक सरकार से ऊपर समझता है। यही धृष्टता हमारे अधिकांश अंग्रोी मीडिया, अखबार और इलेक्ट्रानिक चैनलों द्वारा भी की गई जब इस कार रेस के कवरेज में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती को पूरी तरह से ''ब्लैक-आऊट'' कर दिया गया। अपने आपको लोकतंत्र से ऊपर समझने की प्रवृत्ति कितनी खतरनाक हो सकती है, यह सोच कर डर लगता है। क्या यह अपने आप में अश्लील नहीं है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक आयोजकों को छै: लाख लीटर पेट्रोल सस्ती दरों पर उपलब्ध कराया गया।
अंत में आर्नेस्तो कार्देनाल की एक कविता की पंक्तियां याद आ रही है- ''समोजा नेसमोजा शहर केसमोजा गार्डन मेंसमोजा की प्रतिमा काअनावरण किया।''
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Friday 21 October 2011

जब भी दीपावली का त्यौहार करीब आता है तो पता नहीं क्यों एक तरह का Depression  मुझे घेर लेता है .शायद इसलिए कि मूल रूप में यह व्यापारिओं का त्यौहार हो गया है .भगवान राम ने क्या इस देश में व्यापारिओं के लिए  जनम लिया था .नहीं तो ?फिर यह क्या हुआ ?यह सब हमारी एस्टाब्लिश्मेंट का खेल है .दीपावली Corruption को एक तरह का धार्मिक आवरण पहनाती है और वक़्त की ज़रुरत है कि अन्ना हजारे इस तरफ भी ध्यान दें और लोगों को आगाह करें कि वे दीपावली पर किसी तरह का गलत लेन देन न करें . 

Tuesday 18 October 2011

Kya karen ?

मैं उत्तराखंड से ले कर तमिलनाडु और Orrissa से ले कर गुजरात तक देश के हर कोने में रहा हूँ और हर जगह एक बात बिलकुल एक समान है कि ईश्वर और सरकार यह दो संस्थाएँ ऐसी हैं जो बिना किसी भय के आम लोगों को लूटने के कारोबार में लगी हैं .इनके ऊपर किसी का नियंत्रण नहीं है .मनुष्यता के सबसे बड़े दुश्मन उसके अपने ही बनाये हुए हैं .कितना अजीब है और त्रासद भी .........
  

Sunday 16 October 2011

दरअसल जीवन के इस मोड़ पर आकर लगता है कि अपने आप को एक तरह क़ीनिराशा से बचा कर रखने के लिए खुद से बाहरनिकलना कितना ज़रूरी होता है .सरकारी नौकरी में लगभग ३५ साल रहने के बाद आदमी क़ी हालत Germany के खेतों में काम करने वाले उस घोड़े क़ी तरह हो जाती है जिसके गले में बंधी रस्सी को उसका मालिक खोल देता है पर घोड़े को यकीन नहीं होता और वोह अपनी जगह पर खड़ा रहता है यह सोच कर किवह अभी भी बंधा हुआ है .वह घंटों निराश खड़ा रहता है पर एक कदम आगे नहीं चलता .क्या यह एक तरह की त्रासदी नहीं ? 

Saturday 15 October 2011

ऐसा लगता है कि हमारे मध्य वर्ग ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली है उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि देश में कितनी गरीबी है .Health  और education की Fields  में अलग अलग सरकारों
ने क्या किया है .किस तरह एक देश
को तीन टुकड़ों में बांटदिया गया है .तीन भी क्या कई
टुकड़े .बहुत अमीर,अमीर ,उच्च मध्य वर्ग ,निम्न मध्य वर्ग ,गरीब और सबसे गरीब .यह एक अलग तरह का Communilism  है जिस से लड़ा जाना चाहिए पहले. 
जारी पता नहीं क्यों धीरे धीरे कुछ भी लिखने की इच्छाशक्ति कम होती जा रही है .एक समय था कि मैं इस बात क़ी कल्पना से भी भय खाता था कि लिखने क़ी सार्थकता  के बारे में ही सोचना पड़ेगा .मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो लिखने को एक निजी कर्म समझते हों .मुझे लगता है कि लिखना एक सामाजिक कर्म है .जैसे प्रेमचंद लिखते थे या फिर यशपाल और भीष्म साहनी या हरिशंकर परसाई और मुक्तिबोध.लेकिन पिछले बीस पचीस वर्षों में हमारे देखते ही देखते समय बहुत तेज़ी के साथ बदला है .समय हमारे हाथों से जैसे छूटता ही चला जा रहा है .मैं खूसट बूड़ों क़ी तरह रोना नहीं चाहता पर मैं बहुत उदास हूँ .क्या मैं नए समय को समझ नहीं पा रहा हूँ ?क्या जो मैंने आज तक जीवन में समझा था वहसब गलत था .मुझे लिखना एकाएक निरर्थक सा क्यों लगने लगा है .दरअसल १९९१ के बाद जिस तरह नया अर्थतंत्र आया उसने हमारे सामाजिक रिश्तों को तहस नहस करके रख दिया .इसमें सब कुछ बुरा ही बुरा था या है ऐसा तो नहीं है लेकिन समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को इस परिवर्तन में कोई जगह नहीं मिल सकी.उसे जानबूझकर आँखों से ओझल करने क़ी कोशिश क़ी गयी जो कि संभव नहीं है .आप ज़रा तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया को देखें ,बड़े बड़े अख़बारों को देखें आपको सोने जवाहरात और कारों के विज्ञापनों से भरे नज़र आयेंगे लेकिन कोई एक ऐसी आवाज़ आप नहीं सुन सकेंगे जो उन लोगों की बात करती हो जिनके पास खाने को अन्न नहीं ,पहनने को कपड़ा नहीं ,रहने को छत्त नहीं पर फिर भी वे अपनी लोक धुनों और अपनी बोलिओं के बीच सांस ले रहे हैं .उनकी बात किस अख़बार में छपती है या फिर किस माध्यम में दिखाई जाती है .क्या वे sattalite  आसमान  में ही कहीं टंगे रह जाते हैं जिन में उन के चित्र होते  हैं जिन के पास खाने को अन्न नहीं होता या फिर जो इस धरती पर कई तरह की प्रताड़नाओं के शिकार होते हैं .मुझे लगता है कि यह काम अगर कोई और नहीं कर सकता तो सबसे पहले यह जिम्मेवारी लेखक की बनती है क्योंकि उस के पास विचार है और शब्द हैं .यह मामला सिर्फ तथाकथित रूप से आत्मा और सुकून का नहीं है जिसकी तलाश में हमारा नव धनाड्य मध्य वर्ग रहता है और श्री श्री रविशंकर या उन के जैसे अन्य बाबा जी लोगों की शरण में पलायन करता है. ..........जारी 

Sunday 9 October 2011

ABOUT TEJINDER


Tejinder, 10th May 1951, Jalandhar, Punjab.
Primary education in Bastar and Raipur, Chattesgarh.
A post graduate in English literature. Have served as Director, Doordarshan Kendra, Nagpur, Sambalpur, Dehradun, Chennai, Ahmedabad,and Raipur as  part of Indian Broadcasting services.
Formerly Deputy Director GENRAL OF DOORDARSHAN
.Presently Editorial Advisor to Deshbandhu Group of Publications.
Ten books published in Hindi, Known for the work of fiction ‘WOH MERA CHEHRA’ which was based on the impact of years of terrorism during eighties on the mindset of Sikh youth, born and grown up outside Punjab, after partition.
This novel won the State Academy Award of Government of Madhya Pradesh. The Punjabi translation of this book was serialized in the leading Punjabi daily Tribune Published from Chandigarh.  The book won prestigious ‘WAGEESHWARI   PURASKAR’.  It also got very good reviews in the literary columns of ‘India Today’, ‘Sunday Observer’, ‘Nav-Bhart Times’ and other leading Hindi literary magazines.
Another novel ‘KALA PADRI’ i.e., The Black Priest was based on the mindset of the third generation of tribals in Central India whose ancestors had converted into Christianity.  This novel too got acclaim in Sahara, Hindustan, Outlook and India Today as well in the leading national newspapers of Hindi.
The diary book ‘DIARY SAGA - SAGA’ written on the study and observation based on the social-economic scenario of ‘KALAHANDI’ AND ‘BOLONGIR’ districts of Western Orissa in the form of travelogue has also been well received in the literary circles.
“UNCLE RANDHAWA IN CHENNAI” is the first work in English.
Have been involved in the Production of number of Television documentaries in.
Contact e-mail:  tejinder.gagan@gmail.com, Mobile:08878100098, 09893062464
LANDLINE 07716453095



Friday 30 September 2011

below a level

hi Montek you are not only living in a fool's paradise but you have no levels of understanding of our poor innocent masses.It' only their goodness that people like you survive in this nation.