एक कविता की पंक्तियां है- 'एक हाथ में महीन धागा है, दर्जी के पास, जिससे वह सिलता जाता है कुर्ते और निक्करें, और दूसरे हाथ में कैंची, वह कैंची से काटता है और फिर महीन धागे से सिलता है,
कपड़े, जो मनुष्य के जिस्म को ढंकते हैं, सलीके से, इस तरह वह आकार देता है कपड़ों को, मनुष्य को नंगा होने से बचाए रखने के लिए, और इस पवित्र काम में, धागा और कैंची दोनों ही उसके अस्त्र होते हैं'- किसी भी विचारशील समाज में बुध्दिजीवी की भूमिका एक दर्जी की तरह की होनी चाहिए। हार्वाड विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों भारत के एक व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक दल जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यिम स्वामी को अपने यहां के अध्यापकीय पैनल से बाहर निकाल दिया। उन पर यह कार्रवाई अपने एक लेख में इस्लाम धर्म पर और इस धर्म के अनुयायियों पर की गई विपरीत टिप्पणियों के कारण की गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बुध्दिजीवी वर्ग ने आम तौर पर हार्वाड विश्वविद्यालय के इस कदम की सराहना की। डॉ. सुब्रमण्यिम स्वामी ने सिर्फ इस्लाम के लिए ही आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष तथा कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रति भी उनकी नागरिकता और उनके ईसाई होने को लेकर तरह-तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें करके बड़ी संख्या में युवाओं को भ्रमित किया है। उनका पूरा आचरण इस बात का पुख्ता सबूत है कि सिर्फ डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा, परिपक्व और समझदार नहीं हो जाता। हार्वाड विश्वविद्यालय का जहां तक सवाल है उन्होंने उचित ही किया पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ वर्ष और विगत की ओर चलें तो दोहरे मापदंडों का पता भी चलता है। करीब एक दशक पहले भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक सर विद्याधर नायपाल को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन पर यह आरोप है कि अपने चिंतन और लेखन में वे घोर साम्प्रदायिक हैं। 6 दिसम्बर 1992 में जब अयोध्या में बाबरी-मस्जिद का दुर्भाग्यजनक प्रकरण हुआ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन दो या तीन बुध्दिजीवियों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी की प्रशंसा की सर विद्या उनमें प्रमुख थे। नायपाल ने कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण हिन्दुस्तान के पुर्नजागरण का प्रतीक है।'' नायपाल ने रोमिला थापर के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को महज मार्क्सवादी बताकर नकारते हुए कहा था कि ''अयोध्या प्रकरण एक तरह का ऐतिहासिक प्रतिशोध है।'' यह एक तरह से आडवानी और विश्व हिन्दू परिषद की सोच को ताकत देने वाली प्रतिक्रिया थी।
6 दिसम्बर 1992 के दिन जब सारी दुनिया का मीडिया उस त्रासद घटना को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक अशुभ संकेत बता रहा था। नायपाल ने टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था कि- 'वे लोग जिन्होंने मस्जिद की मीनारों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने का काम किया उनकी भावनाओं (पैशन) को समझने की जरूरत है।'
अयोध्या प्रकरण के कुछ ही वर्षों बाद नायपाल ने अपना विवादास्पद लेख लिखा था जिसमें इस्लाम को कट्टरवादी धर्म बताया गया था और इस उप-महाद्वीप में रहने वाले सभी इस्लाम धर्मानुयायियों को 'कन्वर्ट' कहा गया था। उसके तुरंत बाद ही उन्हें पश्चिमी ताकतों द्वारा साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं हो सकता।
बी.एस.नायपाल की अधिकृत जीवनी लिखने वाले पैट्रिक फे्रंच की पुस्तक 'द वर्ल्ड इा व्हाट इट इा' में लिखी बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो नायपाल जब-जब भी भारत आए यहां के लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण कोई बहुत सम्मानजनक नहीं रहा। वे मुंबई और थाणे में दलित लेखकों के घर उनसे मिलने भी गए लेकिन वह एक अभिजात्य वर्ग के कुलीन लेखक का अपने से कमतर किसी लेखक के यहां जाना था जब कि शिवसेना के नेता बाला साहेब ठाकरे के लिए उनके मन में गहरा आदर का भाव था। यह एक और पक्ष है जो कि सर विद्या को आडवानी के करीब लाता है। लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री-माई लाईफ' में दो अन्य प्रखर बुध्दिजीवियों का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है, जिन्होंने अयोध्या प्रकरण में उन्हें खुला समर्थन दिया- वे हैं- नीराद सी. चौधरी और गिरिलाल जैन। 'आटोबायग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' के लेखक जो कि भूरे साहब के नाम से भी जाने जाते थे, नीराद सी. चौधरी निश्चित ही यूरोप में भारत की पहचान थे लेकिन वे आजीवन भारतीय जन-जीवन के प्रति अपनी घृणा के लिए जाने जाते रहे, इसलिए उनका अपने समर्थन में होना एक तरह से अपने विरोध में होना ही है। लगभग यही बात धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में गिरिलाल जैन पर लागू होती है। दिवंगत श्री जैन की सोच और उनकी विचारधारा किसी से छिपी हुई नहीं थी। श्री जैन ने भी अयोध्या-आन्दोलन को हिन्दू-पुर्नजागरण का एक अनिवार्य और ऐतिहासिक हिस्सा बनाया था।
सच तो यह है कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद के देश में हिन्दी क्षेत्र के तमाम समाचारपत्र और पत्रिकाएं अगर पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक समाचार-पत्रों और उनके संपादकों ने देश के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप का हवाला देते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की खुलकर निंदा की थी। कई बार लगता है कि हमारा मजबूत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र यूरोपियन राष्ट्रों की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है इसलिए वे हर तरह के हथकंडे हमारे ऊपर आजमाते हैं, यहां तक कि हमारे ही बुध्दिजीवियों को भी इन स्थितियों में एक समरस समाज में खलल पैदा करने की कोशिश का हिस्सा बनाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। जापानी कवि मिशियो माडो की पंक्तियां क्या सचमुच सटीक नहीं लगतीं- ''कई बार मैं चकित हो जाता हूं कि, ऐसा क्यों नहीं हैयुग-युगांतर से, अरबों-खरबों साल से, हम धूप में रहते आए हैं, जो इतनी निर्मल हैहवा में सांस लेते आए हैं जो इतनी निर्मल हैपानी पीते आते आए हैं, जो इतना निर्मल है, तब क्यों, आखिर क्योंहम और काम हमारे,पहुंच नहीं पाते, कैसे भी निर्मलता तक।''
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