ब्रटोल्ट ब्रेख्त ने एक जगह कहा है कि, '' जिस तरह मनुष्य को रोजी रोटी की जरूरत होती है, ठीक उसी तरह न्याय की जरूरत भी रोजी होती है, बल्कि न्याय की जरूरत दिन में कई बार हो सकती है।''
यह सच है कि जीवन में और दुनिया में मनुष्य के, मनुष्य के रूप में मूलभूत मानवीय अधिकारों के हनन का सिलसिला बहुत पुराना है। कभी रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर, कभी कथित वंश परंपरा के आधार पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के अधिकारों का लगातार उल्लंघन करता आया है। भारत में तो मानवीय अधिकारों के उल्लंघन का रिकार्ड बहुत खराब है। मूल रूप में मनुवादी वर्ण व्यवस्था ही मनुष्यता के खिलाफ इतिहास का सर्वाधिक क्रूर और अंतरतम् तक बेचैन कर देने वाला षड़यंत्र है। मनुष्य को चार वर्णों में विभाजित कर के देखा जाये? मनुष्यता का इससे अधिक अपमान और क्या हो सकता है? मनु ने शूद्रों और स्त्री जाति के लिए जिन शब्दों और धारणाओं का इस्तेमाल किया उससे किसी भी समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। लेकिन किसी भी जीवंत समाज में आत्मपरीक्षण और सुधार के लिए गुंजाइश बची रहती है। हमारा समाज भी एक जीवंत समाज है और इसीलिए यहां भी समय-समय पर चेतना की अलख जगाने वाले सामाजिक आंदोलन हुए आज हम एक लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सम्माजनक ढंग से रह रहे हैं। पर यह आधा सच है। आधा सच यह है कि आज भी हमारे यहां बड़ी संख्या में बाल श्रमिक हैं, कन्या जन्म दर का प्रतिशत घट रहा है, खेतिहर श्रमिकों को समाज में सम्मानजनक स्थान हासिल नहीं है। स्त्रियां और दलित जातियां अभी भी समाज में बराबरी के हक के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन कुल मिलाकर पिछली सदी के मुकाबले स्थिति में काफी सुधार हुआ है। दरअसल हमारी जड़ों में जो हमारे संस्कार हैं वे हमारे रास्ते में सबसे ज्यादा बाधक हैं। हमारी कहावतें तक ऐसी हैं जो कि हमें अन्याय का प्रतिकार करने से रोकती हैं। ऐसी ही एक कहावत है- ''भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं।'' ााहिर है कहावतें तो जनमानस की मन, स्थिति का निचोड़ होती हैं, उन पर तर्क-कुतर्क नहीं किए जा सकते, लेकिन इससे यह तो पता चलता है कि हम एक तरह की आस्था के साथ अन्याय को बर्दाश्त करते चलते हैं कि देर से ही सही पर एक दिन न्याय ारूर हमारा दरवाजा खटखटायेगा, और उसके लिए भी हमें कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह काम भी भगवान करेगा। यह एक सामंतवादी, मनुवादी संस्कार है जो कि सामंतवाद के पोषकों द्वारा समाज में एक धारणा के रूप में स्थापित किया गया है। सामंतवाद मानवीय अधिकारों का पहली पंक्ति का शत्रु होता है। मैंने पंजाब में कई स्त्रियों द्वारा अपने बच्चों को राजाओं की कहानियां सुनाते हुए सुना है कि- ''फलां राजा की तीन सौ पैंसठ रानियां थीं, उसे सड़क पर जो भी सुंदर स्त्री दिखती थी, वह उसे उठा लाता था''- और यह कहानियां मांओं द्वारा बच्चों को बड़े गर्व के साथ सुनाई जाती थीं। यह किस्सा सिर्फ पंजाब का ही नहीं है बल्कि लगभग पूरे गरीब हिंदी प्रदेश और इतर राज्यों में भी एक समान है। सामंतवाद के अवशेष अभी तक हमारे आस-पास बड़ी संख्या में बिखरे पड़े हैं और ये मानवीय अधिकारों की गरिमा और उनकी सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है। ारूरत है इन अवशेषों को इकट्ठा करके हिंद महासागर में उलट दिया जाए ताकि ये शेष जनसामान्य के महासागर से इनका कोई नाता न रहे।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में यह जो वैश्वीकरण, ग्लोबलाईजेशन हुआ है, इसके भीतर झांककर देखें तो एक खतरा जो दिखाई देता है वह यह कि कहीं सामंतवाद अपना रूप बदल कर लौट तो नहीं रहा? मनुस्मृति में एक मोदार बात है, वह यह कि पैसा सिर्फ उसी व्यक्ति के पास जमा किया जा सकता है जिसका रंग गोरा हो। क्या हम भी यही नहीं कर रहे हैं। अपनी अकूत धन संपदा, अपना सारा खााना चाहे वह पैसा हो या हमारा ज्ञान भंडार। कहीं हम सिर्फ गोरी चमड़ी वालों के लिए ही तो खर्च नहीं कर रहे हैं। उनके उत्पादन, उनके जीवन मूल्य हमें अपने उत्पादन और अपने जीवन मूल्यों से बेहतर लगने लगे हैं। यह एक खतरनाक संकेत है। नव-पूंजीवाद में कहीं नव-सामंतवाद भी छिपा हुआ है और इसकी पड़ताल करना हमारी पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए। जब तक हमारी प्राथमिकता में हमारा आदिवासी, हमारा खेतहिर श्रमिक, वे संघर्षशील स्त्रियां जिन्हें अभी तक उनका उचित और सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है, और बाल मजदूर ये सब नहीं होंगे तब तक मानवीय मूल्यों के हनन की सारी बातें एक तरह का निरर्थक संवाद बन कर ही रह जाएंगी। नीरा राडिया और करीना कपूर हमारे रोल माडल नहीं हो सकते, मेधा पाटकर और अरुंधति राय अवश्य हो सकती हैं, और हैं। अजब-गजब बात यह है कि नव-पूंजीवाद और धार्मिक उन्माद दोनों एक साथ हमारे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर रहे हैं और यह संयोग नहीं है, बल्कि सुनियोजित है। हम एक तरह के सामंतवाद से मुक्त होकर दूसरी तरह के सामंतवाद में धंस रहे हैं। सामंतवाद ने नव-उदारवाद का मुखौटा पहन लिया है और हम मुखौटे को चेहरा समझने की भूल कर रहे हैं। ऐसे में सब से ज्यादा संकट उस समाज के लिए होता है जो अभी कल तक आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ था। जो नैतिक सवाल उसे सब से ज्यादा परेशान करता है वह यह कि अगड़ी जातियों और आर्थिक रूप से समृध्द होकर कहीं वह भी तो शोषकों के समाज का हिस्सा नहीं बन जाएगा? ठीक इसी जगह पर आकर उसे ठहरने, सोचने और फिर सही दिशा की तलाश करने की जरूरत होती है। ऐसे ही नाजुक समय में उसे दिग्भ्रमित करने वाली शक्तियां सक्रिय होती हैं। डर इस बात का है कि कहीं अन्ना हजारे का आंदोलन इसी सुनियोजित षड़यंत्र का एक हिस्सा तो नहीं, क्योंकि उसमें खाते-पीते लोगों के शोषण की बात तो है पर भूखे-नंगे लोगों की तरफ उसका ध्यान जरा भी नहीं है। वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारे तो हैं लेकिन उस भारत की असली तस्वीर के प्रति किसी तरह की संवेदना नार नहीं आती, जिसमें किसानों की आत्महत्याएं हैं या पिसता हुआ निम्न मध्य वर्ग है। भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह का भ्रष्टाचार है और राष्ट्र का नाम लेकर जनता को गुमराह करना, मानवीय मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है। भारतीय मध्य वर्ग की स्थिति मुझे प्रख्यात मलयालम कवि अय्यप पणिकर की इस कविता की तरह लगती है:-
''हंसने मात्र के लिए बनाया एक पुतला, उसे रोने की इच्छा होती, तो भी, हंसी बस हंसी ही आतीइसी तरह निर्माण किया गया है इसका पंडितगण कहते हैं।''
ttejinder.gagan@gmail.com
यह सच है कि जीवन में और दुनिया में मनुष्य के, मनुष्य के रूप में मूलभूत मानवीय अधिकारों के हनन का सिलसिला बहुत पुराना है। कभी रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर, कभी कथित वंश परंपरा के आधार पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के अधिकारों का लगातार उल्लंघन करता आया है। भारत में तो मानवीय अधिकारों के उल्लंघन का रिकार्ड बहुत खराब है। मूल रूप में मनुवादी वर्ण व्यवस्था ही मनुष्यता के खिलाफ इतिहास का सर्वाधिक क्रूर और अंतरतम् तक बेचैन कर देने वाला षड़यंत्र है। मनुष्य को चार वर्णों में विभाजित कर के देखा जाये? मनुष्यता का इससे अधिक अपमान और क्या हो सकता है? मनु ने शूद्रों और स्त्री जाति के लिए जिन शब्दों और धारणाओं का इस्तेमाल किया उससे किसी भी समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। लेकिन किसी भी जीवंत समाज में आत्मपरीक्षण और सुधार के लिए गुंजाइश बची रहती है। हमारा समाज भी एक जीवंत समाज है और इसीलिए यहां भी समय-समय पर चेतना की अलख जगाने वाले सामाजिक आंदोलन हुए आज हम एक लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सम्माजनक ढंग से रह रहे हैं। पर यह आधा सच है। आधा सच यह है कि आज भी हमारे यहां बड़ी संख्या में बाल श्रमिक हैं, कन्या जन्म दर का प्रतिशत घट रहा है, खेतिहर श्रमिकों को समाज में सम्मानजनक स्थान हासिल नहीं है। स्त्रियां और दलित जातियां अभी भी समाज में बराबरी के हक के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन कुल मिलाकर पिछली सदी के मुकाबले स्थिति में काफी सुधार हुआ है। दरअसल हमारी जड़ों में जो हमारे संस्कार हैं वे हमारे रास्ते में सबसे ज्यादा बाधक हैं। हमारी कहावतें तक ऐसी हैं जो कि हमें अन्याय का प्रतिकार करने से रोकती हैं। ऐसी ही एक कहावत है- ''भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं।'' ााहिर है कहावतें तो जनमानस की मन, स्थिति का निचोड़ होती हैं, उन पर तर्क-कुतर्क नहीं किए जा सकते, लेकिन इससे यह तो पता चलता है कि हम एक तरह की आस्था के साथ अन्याय को बर्दाश्त करते चलते हैं कि देर से ही सही पर एक दिन न्याय ारूर हमारा दरवाजा खटखटायेगा, और उसके लिए भी हमें कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह काम भी भगवान करेगा। यह एक सामंतवादी, मनुवादी संस्कार है जो कि सामंतवाद के पोषकों द्वारा समाज में एक धारणा के रूप में स्थापित किया गया है। सामंतवाद मानवीय अधिकारों का पहली पंक्ति का शत्रु होता है। मैंने पंजाब में कई स्त्रियों द्वारा अपने बच्चों को राजाओं की कहानियां सुनाते हुए सुना है कि- ''फलां राजा की तीन सौ पैंसठ रानियां थीं, उसे सड़क पर जो भी सुंदर स्त्री दिखती थी, वह उसे उठा लाता था''- और यह कहानियां मांओं द्वारा बच्चों को बड़े गर्व के साथ सुनाई जाती थीं। यह किस्सा सिर्फ पंजाब का ही नहीं है बल्कि लगभग पूरे गरीब हिंदी प्रदेश और इतर राज्यों में भी एक समान है। सामंतवाद के अवशेष अभी तक हमारे आस-पास बड़ी संख्या में बिखरे पड़े हैं और ये मानवीय अधिकारों की गरिमा और उनकी सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है। ारूरत है इन अवशेषों को इकट्ठा करके हिंद महासागर में उलट दिया जाए ताकि ये शेष जनसामान्य के महासागर से इनका कोई नाता न रहे।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में यह जो वैश्वीकरण, ग्लोबलाईजेशन हुआ है, इसके भीतर झांककर देखें तो एक खतरा जो दिखाई देता है वह यह कि कहीं सामंतवाद अपना रूप बदल कर लौट तो नहीं रहा? मनुस्मृति में एक मोदार बात है, वह यह कि पैसा सिर्फ उसी व्यक्ति के पास जमा किया जा सकता है जिसका रंग गोरा हो। क्या हम भी यही नहीं कर रहे हैं। अपनी अकूत धन संपदा, अपना सारा खााना चाहे वह पैसा हो या हमारा ज्ञान भंडार। कहीं हम सिर्फ गोरी चमड़ी वालों के लिए ही तो खर्च नहीं कर रहे हैं। उनके उत्पादन, उनके जीवन मूल्य हमें अपने उत्पादन और अपने जीवन मूल्यों से बेहतर लगने लगे हैं। यह एक खतरनाक संकेत है। नव-पूंजीवाद में कहीं नव-सामंतवाद भी छिपा हुआ है और इसकी पड़ताल करना हमारी पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए। जब तक हमारी प्राथमिकता में हमारा आदिवासी, हमारा खेतहिर श्रमिक, वे संघर्षशील स्त्रियां जिन्हें अभी तक उनका उचित और सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है, और बाल मजदूर ये सब नहीं होंगे तब तक मानवीय मूल्यों के हनन की सारी बातें एक तरह का निरर्थक संवाद बन कर ही रह जाएंगी। नीरा राडिया और करीना कपूर हमारे रोल माडल नहीं हो सकते, मेधा पाटकर और अरुंधति राय अवश्य हो सकती हैं, और हैं। अजब-गजब बात यह है कि नव-पूंजीवाद और धार्मिक उन्माद दोनों एक साथ हमारे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर रहे हैं और यह संयोग नहीं है, बल्कि सुनियोजित है। हम एक तरह के सामंतवाद से मुक्त होकर दूसरी तरह के सामंतवाद में धंस रहे हैं। सामंतवाद ने नव-उदारवाद का मुखौटा पहन लिया है और हम मुखौटे को चेहरा समझने की भूल कर रहे हैं। ऐसे में सब से ज्यादा संकट उस समाज के लिए होता है जो अभी कल तक आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ था। जो नैतिक सवाल उसे सब से ज्यादा परेशान करता है वह यह कि अगड़ी जातियों और आर्थिक रूप से समृध्द होकर कहीं वह भी तो शोषकों के समाज का हिस्सा नहीं बन जाएगा? ठीक इसी जगह पर आकर उसे ठहरने, सोचने और फिर सही दिशा की तलाश करने की जरूरत होती है। ऐसे ही नाजुक समय में उसे दिग्भ्रमित करने वाली शक्तियां सक्रिय होती हैं। डर इस बात का है कि कहीं अन्ना हजारे का आंदोलन इसी सुनियोजित षड़यंत्र का एक हिस्सा तो नहीं, क्योंकि उसमें खाते-पीते लोगों के शोषण की बात तो है पर भूखे-नंगे लोगों की तरफ उसका ध्यान जरा भी नहीं है। वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारे तो हैं लेकिन उस भारत की असली तस्वीर के प्रति किसी तरह की संवेदना नार नहीं आती, जिसमें किसानों की आत्महत्याएं हैं या पिसता हुआ निम्न मध्य वर्ग है। भ्रष्टाचार शब्द का दोहन भी एक तरह का भ्रष्टाचार है और राष्ट्र का नाम लेकर जनता को गुमराह करना, मानवीय मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है। भारतीय मध्य वर्ग की स्थिति मुझे प्रख्यात मलयालम कवि अय्यप पणिकर की इस कविता की तरह लगती है:-
''हंसने मात्र के लिए बनाया एक पुतला, उसे रोने की इच्छा होती, तो भी, हंसी बस हंसी ही आतीइसी तरह निर्माण किया गया है इसका पंडितगण कहते हैं।''
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