Thursday 15 December 2011


फौ अहमद फौ ने अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले नवम्बर 1984 में  लिखा था-''हम एक उम्र से वाकिंफ हैं, अब न समझाओ कि लुतंफ क्या है, मेरे मेहरबां और सितम क्या है।''
कल छै: दिसम्बर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस को उन्नीस वर्ष पूरे हो गए। उसके बाद देश में बहुत कुछ बदला है, पर वह जो दरार छै: दिसम्बर 1992 को अयोध्या में पड़ी, उसे अभी तक पूरी तरह नहीं भरा जा सका है। दोनों समुदायों में बड़ी संख्या में ऐसे तथाकथित बुध्दिजीवी आपको मिल जाएंगे जो इतिहास के तहखाने में गोते लगाते-लगाते, अपनी सांस ऊपर-नीचे करते आपको लगातार समझाने की कोशिश करेंगे कि वहां दरअसल मंदिर था या मस्जिद थी। अपने इतिहास में या अतीत में जाना कोई बहुत बुरी बात तो नहीं है लेकिन उसमें धंस जाना और फिर वहीं ठहर जाना, निश्चित ही बुरा है। अपनी जडों के बिना कोई भी संप्रदाय, कोई भी जाति, कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती लेकिन जड़ों को सींचने का काम वर्तमान और भविष्य की दृष्टि ही करती है। पिछले उन्नीस वर्षों में देश ने अपनी काफी ऊर्जा इस बात पर खर्च की है कि इस मामले को कैसे सुलझाया जाए। सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही तरह से। देश की न्यायपालिका को इस विवाद के अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा गया है पर मामला अभी तक वादियों, प्रतिवादियों और याचिकाओं, पुर्नयाचिकाओं के भंवरजाल में है। इस बात को निश्चित तौर पर बता पाना बहुत मुश्किल है कि अंतत: कब अंतिम रूप से यह तय किया जा सकेगा कि मंदिर कहां था और मस्जिद कहां थी। वैसे तो आस्था के सभी केंद्रबिंदु मनुष्य के अपने भीतर होते हैं पर यहां सवाल व्यक्तिगत आस्था का नहीं है अपितु सामूहिक तर्क और विश्वास का है, इसलिए यह ारूरी है कि कोई सर्वमान्य हल ऐसा हो जो दोनों समुदायों के स्वाभिमान को आंच न पहुंचाता हो। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी ने, एक ऐसे समय में अपनी रथ-यात्रा के माध्यम से दोनों समुदायों के बीच ऐसी रेखा खींच दी, जिसने अल्पसंख्यकों के मन में एक गहरा घाव पैदा कर दिया। यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की उस भावना के बिल्कुल विपरीत था जो उन्होंने आाादी के तुरंत बाद देश के सभी मुख्यमंत्रियों के नाम अपने पत्र में व्यक्त की थी। पंडित नेहरू ने 15 अक्टूबर 1947 को लिखे इस पत्र में कहा था कि, ''हमें अल्पसंख्यक संप्रदाय के साथ सभ्यता का बर्ताव करना होगा। हमें उन्हें सुरक्षा और एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों को मिलने वाले सभी अधिकार देने ही होंगे। यदि हम ऐसा कर पाने में विफल रहे तो ऐसा तीखा घाव लगेगा, जो अंतत: पूरी व्यवस्था में ाहर भर देगा और संभवत: उसे ध्वस्त भी कर देगा।'' ााहिर है पंडित नेहरू की यह चेतावनी सिर्फ उनके अपने समय के लिए नहीं थी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी थी। प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी कहा था कि बहुसंख्यक समाज की दस प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता, अल्पसंख्यकों की सौ प्रतिशत सांप्रदायिक मानसिकता के ऊपर भारी पड़ सकती है। कुछ वर्ष पूर्व मैं लाहौर में था। लाहौर की सड़कों पर घूमते हुए मुझे एक भारतीय के रूप में पहचान पाना कोई मुश्किल काम नहीं था। यह बात अलग है कि वहां इंग्लैण्ड अथवा कैनेडा से आए सिक्खों को भी देखा जा सकता है। मेरी जो बातचीत वहां के युवकों से या सड़कों पर मिलने वाले अन्य लोगों से हुई, उसमें यह आभास हुआ कि वहां के युवकों में भारत-विरोधी और विशेष रूप से हिन्दू-विरोधी धारणाएं बहुत प्रबल हैं। उन्हें लगता है कि भारत उनका पड़ोसी नहीं, बड़ा भाई नहीं, मित्र नहीं बल्कि शत्रु है। यह अजीब था। वे जैसे अपने अतीत का हिस्सा ही नहीं थे। उनके लिए यह दुनिया साठ-पैंसठ साल पहले ही बनी थी। प्रगतिशील सहित्य की जानी-मानी लेखिका किश्वर नाहीद से अपने होटल में बातचीत के दौरान जब मैंने यह जानना चाहा कि अंतत: पच्चीस-तीस वर्षीय पाकिस्तानी युवकों में घृणा का यह भाव क्यों है, वे तो विभाजन के बहुत बाद में पैदा हुए तो उन्होंने तपाक से कहा कि - ''यह सब पश्चिमी मीडिया का कमाल है, जो हम सब भोग रहे हैं। यूरोपीय राष्ट्र और अमेरिका कभी नहीं चाहते कि इस उप-महाद्वीप में शांति बनी रहे या कि लोगों के जीवन स्तर विकसित हो सके।'' यह बात सच है। आज जब हम इंटरनेट खोलकर बैठते हैं तो देखते हैं कि 'फेसबुक' के अंदर कई चेहरे ऐसे हैं जो अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और अपमान का ंजहर उगल रहे हैं।
यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति की ओर सिर्फ संकेत मात्र नहीं बल्कि तमाम संवेदनशील मानवीय मूल्यों का खुलमखुल्ला उल्लंघन है। दिलचस्प बात यह है कि फिलहाल इस पर कोई सजा नहीं, सरकारी-गैर-सरकारी तौर पर कोई आवाज नहीं, कोई विरोध नहीं। अगर कोई आपकी बात से असहमत हैं तो कुछेक व्यक्तियों द्वारा ऐसे फरमान भी जारी किए जाते हैं कि, असहमति वाले व्यक्ति को गोली मार देनी चाहिए। यह त्रासद है। इंटरनेट का अगर विचार के स्तर पर यह इस्तेमाल है तो इससे अच्छी क्या संवादहीनता की स्थिति नहीं होगी? यह सवाल बहुत अच्छा नहीं है, लेकिन अगर आप ने 'फेसबुक' पर कुछेक समूहों का वार्तालाप पढ़ा हो तो संभवत: यह सवाल औचित्यहीन नहीं लगेगा।
यह सही वक्त था कि इंटरनेट जैसे माध्यमों से हमारा समाज अयोध्या विवाद की तरह के मुद्दों पर एक तरह की रचनात्मक बहस करता जो कि सार्थक और विचारशील होती और किसी भी समुदाय की भावनाओं और उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाती।
अयोध्या मुद्दे की लंबित याचिकाओं पर न्यायाधीशों का जो भी अंतिम फैसला आए वह दोनों समुदायों को अपने-अपने स्वाभिमान के साथ स्वीकार्य हो और हम सब को एक बेहतर मनुष्य बनाए, यही कामना है। आमीन!
अंत में युवा कवि प्रदीप जलवाने की एक कविता ''आस्था का अंश''-  ''जैसे बीज की आस्था होती है धरती में, जैसे बूंद की आस्था होती है समुद्र में, जैसे किसी पाखी की आस्था होती है आकाश में, तुम मेरी आस्था की धरती, समुद्र और आकाश हो।''

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