Tuesday, 24 April 2012

deshbandhu main prakashit mera aaj ka coloumn


Deshbandhu mein aaj prakashit mera colunm'मैंने उससे कहा मुझे रस्सी चाहिए'', उसने कहा- ''ले लो, जितनी तुम्हारी मर्जी'', फिर मैंने कहा- ''बाल्टी'', उसने कहा- ''वह भी उठा लो जितनी बड़ी तुम उठा सकते हो'', मैंने जिस्म के इर्द-गिर्द रस्सी लपेटी बाल्टी को सिर पर रखा और रेगिस्तान में एक अंधे कुएं के पास तक चला गया, वह भी मेरे पीछे-पीछे था, मैंने पलटकर उससे कहा- 'पानी' तो वह तपाक से बोला- ''पानी तो मैं नहीं दे सकता, बल्कि जो तुम्हारे पास है, वह भी मेरा है इस रस्सी और बाल्टी के एवज में'' - क्या कविता की यह पंक्तियां एक तरह से निराशा की तरफ संकेत नहीं करतीं कि हम जहां खडे हैं वहां अनिश्चितता का एक दुर्गम वातावरण हैं, जिसमें हमें यह पता नहीं कि पानी कहां है और अगर है तो कितनी गहराई तक है। हमारे पीछे जो एक आदमी खड़ा है, उसने कहने को तो रस्सी और बाल्टी हमारे हवाले कर दिए हैं पर पानी का जखीरा उसके ही नियंत्रण में है और वह बड़े रहस्यमयी ढंग से खतरनाक मुद्रा में है। आज के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पर एक नार डालें तो यह समझ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है कि सत्ता के सूत्र किसके हाथों में है। रेगिस्तान का अंधा कुंआ हमारे सामने है पर उसमें कितना पानी है और किस गहराई तक है, इसका अनुमान किसी को नहीं है, सब एक दूसरे की तरफ अपनी-अपनी उंगलियों से संकेत ारूर करते हैं कि -शायद तुम को पता हो? सच बात तो यह है कि अब हमारा किसी के साथ अंतरंग रिश्ता नहीं रह गया है। जो रिश्ता है- वह अंधे कुएं तक पहुंच पाने की होड़ का है। अंधे कुएं का अर्थ शायद 'ग्लोब' और उसमें जमे हुए पानी का अर्थ 'पूंजी' हो सकता है। जब मानवीय रिश्तों की महक खत्म होने को होती है तो हम उसे वस्तुओं में खोजने लगते हैं। धीरे-धीरे वस्तएं हमारे लिए इतनी अहम् हो जाती हैं कि हमारे अंर्तसंबंधों के सारे अर्थ, वस्तुओं पर ही आकर टिक जाते हैं। कुछ-कुछ इसी मन:स्थिति में पूरा समाज घिरता चला जा रहा है। बेहद तटस्थ और यथार्थपरक तरीके से देखने पर भी ऐसा लगता है कि अभी हम विचारों के उर्वर प्रदेश से काफी पीछे हैं। वह रस्सी जो हमें अपने पैरों की ताकत से ज्यादा मुहैया करा दी गई हैं, उसे बार-बार खोलने और बांधने में अपनी ऊर्जा हम स्वयं ही नष्ट कर रहे हैं, क्योंकि पानी पर हमारा अधिकार नहीं है।
अभी दो दिन पहले छत्तीसगढ़ में सुकमा जिले के जिला कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का नक्सलवादियों द्वारा अपहरण कर लिया गया। इस त्रासद घटना में उनके दो अंगरक्षक और एक अन्य ग्रामीण मारे गए। नक्सलवाद पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कुछ नया कह पाने की गुंजाईश मेरे पास कम है। फिर भी यह कहना ारूरी होगा कि समाज में अन्याय, असंतुलन और आदिवासी तथा अन्य पिछड़े समाजों के विभिन्न वगोर्ें के साथ अपनाई जाने वाली भेदभावपूर्ण नीतियों के चलते नक्सलवाद ने अपने डैने फैलाए हैं। सुकमा के कलेक्टर के अपहरण या कुल मिलाकर नक्सलवाद के प्रश्न पर छत्तीसगढ़ के बुध्दिजीवियों का बड़ा वर्ग क्या सोचता है यह अभी तक सामने नहीं आया है। ऐसा लगता है कि इस संदर्भ में हम एक निर्जन प्रदेश में रह रहे हैं जहां संवेदनशीलता पत्थरों में तब्दील हो गई है। राजेश जोशी की एक कविता की पहली पंक्ति हैं- ''बच्चे काम पर जा रहे हैं'', ''यह हमारे समय का एक भयानक वाक्य है''- यह सच है। जहां तक मुझे स्मरण है यह कविता आज से कोई दस साल पहले लिखी गई थी। दस सालों में समाज की यह भयावहता क्या खत्म हुई है या कि और अधिक खतरनाक और सघन हुई है। अब समाचारों में यह सुनाई पड़ता है कि - ''पिछले तीन वर्षों में विदर्भ में दो लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली।'' मैं राजेश जोशी जैसे हमारे समय के बेहद संवेदनशील रचनाकारों से पूछना चाहता हूं कि अब आप क्या लिखेंगे? सच बात तो यह है कि जिस तरह कुएं के पानी का किसी को पता नहीं ठीक उसी तरह कलम की स्याही भी सूख रही है। मुझसे यह पूछा गया कि सुकमा कलेक्टर के अपहरण मामले पर छत्तीसगढ़ के बुध्दिजीवियों का 'स्टैण्ड' क्या है, तो सचमुच मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था क्योंकि मैं इसी बात से व्यथित था कि इस अपहरण के दुर्भाग्यजनक हादसे के दौरान जो तीन लोग मारे गए उनका नाम लेवा मुझे कहीं नंजर नहीं आ रहा था। इनमें से दो सुरक्षाप्रहरी थे जो कि डयूटी पर ही थे, और उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नक्सलवाद एक विचार है जो कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा को जायज ठहराता है। अब गोली का मुकाबला तो गोली से कर सकते हैं लेकिन जहां यह गोली विचार के साथ हो वहां बात संश्लिष्ट हो जाती है। नक्सलवाद का मुकाबला हमें विचार के साथ करना होगा, सिर्फ गोली के साथ यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। हिंसा के विरूध्द हिंसा तो उसी तरह है जैसे यह विचार कि-''अगर तुम मेरी आंखें निकाल दोगे तो मैं तुम्हारी आंखें निकाल दूंगा।'' यह विचार पूरे समाज को अंधा बनाने का विचार है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में दुखद तथ्य यह है कि यहां के बुध्दिजीवियों ने अपनी आवाज को न केवल खो दिया है बल्कि अब तो वे अपनी खुद की आवाज को ही नहीं पहचानते। कुछ मध्यमवर्ग छद्म बुध्दिजीवी यह कहते हुए ारूर पाए जाते हैं कि सेना लगाकर ''सारे नक्सलवादियों को गोली मार दो।'' उन्हें कौन समझाए कि यह समस्या का समाधान नहीं है। क्या कभी इस बात पर विचार किया गया है कि नक्सलवाद अपने डैने वहीं-वहीं पर क्यों फैलाता है जहां-जहां किसानों को उनकी भूमि से बेदखल करने की कोशिश की जा रही है या एक हद तक कर दिया गया है या फिर जहां-जहां सरकारी नीतियां बाहर से आए व्यापारियों और ठेकेदारों के हित में जाती हैं? क्या कभी आदिवासियों के चरित्र और स्वभाव को करीब से गहन संवेदनशीलता के साथ समझने के लिए किसी तरह के शोध कार्य किए गए हैं। आदिवासी उस शहरी मध्यवर्ग की तरह नहीं है जो दो पैसे झोली में डाल देने पर आपके सामने झुककर खडा हो जाता है और आप उसकी पीठ पर दो पैसे के एवज में अपना नाम लिख देते हैं। आदिवासी के पास अपनी लिपि और अपने रंग हैं जिनके साथ वह अपना गोदना स्वयं रचता है। इसलिए सरकार को और पूंजीपतियों को उनके साथ संवाद करने के लिए उनकी भाषा सीखनी होगी वर्ना सुकमा कलेक्टर के अपहरण जैसी दुखद घटनाएं होती रहेंगी। हम देख रहे हैं कि छत्तीसगढ़ का बुध्दिजीवी वर्ग आधिकारिक तौर पर न तो किसी सरकार के पक्ष में है और न ही नक्सलवादियों के। वह निरपेक्ष है और इस निरपेक्षता को एक तरह के अपराध की संज्ञा भी दी जा सकती है। छत्तीसगढ़ में संभवत: दर्जनभर से अधिक साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन हैं, इनमें से किसी एक का भी बयान नहीं आया कि- वे क्या सोचते हैं, या उन्हें क्या करना चाहिए। जो किसी के पक्ष में नहीं होता, उसका कोई पक्ष नहीं होता और यह स्थिति किसी भी समाज के लिए सर्वाधिक घातक होती है। यह उसी आदमी की तरह है जिसने खुद को लंबी रस्सी से बांध रखा है और जिसके हाथों में बड़ी सी बाल्टी है पर जिसे यह पता नहीं कि पानी का स्रोत कहां पर है।

Tuesday, 27 March 2012

प्रभु जी हम गरीब तुम पालन हार




पिछले सप्ताह दो खबरें पूरे समाचार जगत में अनर्थ के अंधकार की तरह छाई रहीं। एक तो यह कि नव-धनाढय वर्ग के जीवित देवता श्रीश्री रविशंकर ने यह कहा कि सरकारी स्कूल बंद कर दिए जाने चाहिए और शिक्षा का दायित्व निजी हाथों में सौंप दिया जाना चाहिए और दूसरे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने 'गरीबी की रेखा' की जो नई परिभाषा गढ़ी, और यह 'सुखद' समाचार दिया कि उनकी गणना के मान से भारत में गरीबों की संख्या में सात प्रतिशत की कमी आई है। उनके बुध्दिजीवी साथियों जिन में लार्ड मेघनाथ देसाई शामिल हैं, ने उनकी इस गणना का समर्थन किया। हालांकि अपनी बात के समर्थन में वे सड़कों पर नहीं उतरे क्योंकि अगर कहीं वे सड़क पर उतर आते तो अपने समर्थन के तर्कों पर उन्हें पुनर्विचार करना पड़ता। गरीब आदमी के चेहरे पर रोशनी लाने में इन अर्थशास्त्रियों के चमकते चेहरे कतई समर्थ नहीं हैं। इस बात को वे भी समझते हैं। 'टाईम्स ऑफ इंडिया' के अपने एक आलेख में बच्ची करकरिया ने श्री मोंटेक सिंह का नाम उचित ही  'मनी टेक सिंह' लिखा है। यह विडंबना है कि भारत के योजना आयोग के उपाध्यक्ष को देश में गरीबी की रेखा के मापदंड को समझने के लिए वर्ष भर में दर्जनों बार संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्राएं करनी पड़ती हैं। गरीबी की रेखा गरीब आदमी के चेहरे पर अपनी पूरी पारदर्शिता के साथ दिखाई देती है, उसे पढ़ने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यता नहीं होनी चाहिए। गरीबी की रेखा गरीब आदमी की धमनियों में धीमी गति से चलती है और उसे पकड़कर उसमें जरूरी खाद-पानी डालना कोई मुश्किल काम नहीं है पर योजना आयोग में बैठे नौकरशाह अपनी गिनती और अपने आंकडों में मुंह छिपाए बैठे रहते हैं और अपना एक छद्म संसार रच लेते हैं। उन्हें लगता है कि देश की पूरी धन सम्पदा का स्रोत वे हैं। वे यह भूलते हैं कि तथ्य इसके ठीक विपरीत है। देश का मेहनतकश आदमी, किसान, मजदूर, रिक्शेवाला, फल और सब्जी के ठेले लगाने वाला, तकनीशियन, छोटा-मोटा सरकारी कर्मचारी-चपरासी, क्लर्क और लेखापाल, यह सारी जनता जो शहरों में, पहाड़ों पर और समुद्र के किनारे पर मछली पकड़ने वाले मछुआरे- ये सब जो काम करते हैं और टैक्स भरते हैं, यह सारा पैसा उनका है, जिस पर उनका हक बनता है। देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत योजना आयोग सिर्फ एक संस्था है और उसका काम जनता के इस पैसे का हिसाब रखते हुए ऐसी नीतियां बनाना है कि देश का अर्थतंत्र विकसित हो सके या फिर इस बात की तटस्थ मीमांसा करना भी है कि किस राज्य ने किन योजनाओं के तहत आबंटित पैसे का उपयोग अपने राज्य की दूरगामी जन कल्याण योजनाओं के लिए खर्च किया है कि उनके राज्य के आम आदमी के जीवन-स्तर में पर्याप्त सुधार आ सके। योजना आयोग को राज्यों को उनके संसाधनों के मुताबिक पैसा आबंटित करना चाहिए न कि राजनैतिक पक्षधरता से या उस तरह कि जैसे हम किसी भिखारी को उस तरह से पैसे दें कि वह भीख मांगने का एक नया कटोरा खरीद सके। सारी गडबड़ी गरीबी की रेखा मापने के हमारे मानदंडों में है। संभवत: यह एक मानदंड है कि अगर किसी व्यक्ति के पास इतने संसाधन हैं कि वह एक नियत मात्रा में 'कैलोरींज' ले सकता है तो वह गरीब नहीं हैं। पता नहीं किन विवेकहीन लोगों की यह सोच थी  या इसका वैज्ञानिक आधार क्या था पर एक मामूली तरह से सोचने वाले व्यक्ति की समझ में भी जो बात आती है वह यह कि- एक आदमी के  पास रहने के लिए छत न हो, पहनने के लिए कपड़ा न हो, जिसकी सारी इच्छाएं मर चुकी हों, जो बहुत दूर तो क्या अपने पास तक देख न सकता हो, उसके पास कमाई का कोई साधन न हो- उसे कुछ 'कैलोरींज' देकर क्या कोई भी सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकती है। चूंकि यह किसी एक व्यक्ति का किस्सा नहीं है- सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों की तादाद में, पूरे देश में एक बहुत बडा गरीब तबका गरीबी की उनकी खींची हुई रेखा के नीचे जीवनयापन करने पर विवश है, तो निश्चित ही यह सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का नतीजा है। इन नीतियों को सुधारने की जगह सरकार उन पर पर्दा डालने की कोशिश लगातार करती है और यह आम आदमी को दिखाई दे रहा है पर योजना आयोग को दिखाई नहीं देता क्यों? ऐसे ही जैसे कि श्रीश्री रविशंकर को यह दिखाई नहीं देता कि देश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे गरीबी की हालत में भी पढ़ तो रहे हैं। उनके पास साधन नहीं है फिर भी एक प्राथमिक पाठशाला उन्हें शरण देती है। जिस निजी क्षेत्र की शिक्षा की बात श्रीश्री रविशंकर करते हैं वहां तो पैसा मनुष्य को रौंदता हुआ चलता है। वे स्कूल तो अमेरिका से संचालित होते हैं, उनका तो भारतीयता और भारतीय जीवन तथा उसकी मूल्यबध्दता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। श्रीश्री कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे नक्सली होते हैं। यह घोर आपत्तिजनक बात है और साथ ही झूठ भी। सच बात तो यह है कि जिस तरह देश में शिक्षा का निजीकरण हुआ है और एक नया युवा आभिजात्य वर्ग सामने आया है, जिसका देश की जड़ों के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है, उसके प्रतिफलन के रूप में नक्सलवाद का फैलाव हुआ है। आप देश के सारे निजी शिक्षण संस्थान बंद कर दीजिए और अमीर या गरीब की परवाह किए बगैर सबको शिक्षा के समान अवसर दे दीजिए तो आप देखेंगे कि नक्सलवाद की रेखा, अपने आप ही आप की हथेलियों से गायब होती दिखेगी।
इस बीच अन्ना हजारे ने एक बार फिर जन-लोकपाल बिल के लिए नई दिल्ली में एक दिन का सांकेतिक अनशन किया है। यह न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि दु:खद भी है। देश की संसद को गौण करने की कोई भी कोशिश अंतत: एक तरह का राष्ट्र-द्रोह ही कहलाएगी। यह अलग बात है कि अगर आप को पूरी ईमानदारी से यह लगता है कि संसद में कुछ ऐसे लोग पहुंच जाते हैं जिनका आचरण  नैतिक मूल्यों पर खरा नहीं उतरता या जिनका लोक-जीवन संदिग्ध है तो आपको उसके लिए जन-चेतना जागृत करने का काम करना चाहिए पर यह एक भोली सी इच्छा होगी क्योंकि आपके साथ तो श्रीश्री और बाबा रामदेव जैसे लोग खड़े है जिनका अपना नैतिक-संदेश ही संदिग्ध है या फिर आपके साथ अरविन्द केजरीवाल और सुश्री किरण बेदी हैं जो स्वयं नौकरशाह रहे हैं और अपना टैक्स समय पर न देने और फर्जी दौरा बिल भरने के आरोप झेल रहे हैं। अन्ना हजारे को देश की आम जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि जनलोकपाल बिल कोई ऐसा जादू का पिटारा नहीं है कि खुल जा सिमसिम कहते ही अलादीन का कोई चिराग बाहर आ जाएगा और देश की सभी समस्याओं का निदान कर देगा। यह पहला कदम भी नहीं है- पहला कदम है गरीबी की रेखा का पुनर्निर्धारण और सभी को शिक्षा के समान अवसर मुहैया कराना। जब तक यह नहीं हो जाता तब तक तो यह ठीक है कि - 'प्रभु जी हम गरीब, तुम पालनहार-'
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Wednesday, 22 February 2012


तेजिन्दर
''एक दुबला पतला, लहीम-शहीम सा आदमी, झुका हुआ, अंतड़ियां बाहर, आंखें अंदर, हाथ जैसे हड्डियों की मुट्ठियां, सूखे बदन पर मैला सा  अंगोछा लपेटे, दुआ देता है सब को कि जीते रहो और ईश्वर तुम्हारा भला करें।'' यह दृश्य भारतीय समाज के गरीब और ग्रामीण समाज का एक अहम् हिस्सा है। पिछली कई शताब्दियों से यह अमानवीय परिदृश्य लगातार समाज में उपस्थित रहा है और आज भी है। उन पीढ़ियों के पास डेल कार्नेगी, स्वेट मार्टिन, शिवखेड़ा और दीपक चोपड़ा नहीं थे। उनके पास इस तरह के लोगों की कोई परिकल्पना भी नहीं थी और न ही उन्हें इनकी ारूरत थी, पर एक बार सूखे और अकाल की चपेट में आने के बावजूद वे अगली फसल की बोआई करना नहीं भूलते थे। वे इस बारे में आनेवाली संतानों को कोई उपदेश भी नहीं देते थे- वे बस अपना जीवन जीते चलते थे। मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मेरा यह आशय कतई नहीं है कि मैं एक परंपरावादी या स्थितप्रज्ञ समाज का पक्षधर हूं या यह कि समाज में परिवर्तन नहीं होने चाहिए। लगातार आत्मपरीक्षण करते हुए समाज की विसंगतियों को दूर करते रहने वाला समाज ही प्रगतिशील समाज होता है। सारी बात संतुलन की है। 1984 में जब श्री राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने तकनालाजी के विकास पर बहुत जोर दिया और अपनी दृष्टि इक्कीसवीं सदी के भारत पर टिकाई। उनसे पहले श्रीमती इंदिरा गांधी की छवि भी अग्रगामी थी। जिस तरह उन्होंने सामंतवाद के खिलाफ कदम उठाए, देश में एशियाड खेलों का आयोजन करवाया और रंगीन टेलीविजन प्रसारण की शुरुआत करवाई, वह सब इस बात का प्रमाण है कि वे आधुनिक भारत का सपना देख रही थीं पर उनके और राजीव गांधी के सपनों के भारत और पंडित जवाहरलाल नेहरू के भारत के सपनोंमें अंतर था। पंडित नेहरू जहां मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ समकालीन समाज से एक गहरा रिश्ता बनाकर आपसी सामंजस्य से आगे बढ़ना चाहते थे वहीं 1980 के बाद, आपातकाल से जीवन का नया पाठ पढ़कर बाहर निकलीं श्रीमती इंदिरा गांधी की नीतियों में एक तरह का आक्रामक रवैया था। नेहरू युगीन भारत में भाखड़ा-नंगल बांध और भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे संस्थान, जनसामान्य को अपने ही गांव के विस्तार की तरह नार आते थे जबकि पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में फैला आधुनिक बाजार, गांव को अपने से बाहर खदेड़ता हुआ नार आता है।
जनता पार्टी  की सरकार का प्रयोग असफल हो जाने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी को यह गलतफहमी थी कि उनका अब कोई विकल्प नहीं है। पर हमारे देश का जनमानस आश्चर्यजनक रूप से, लोकतंत्र की बिना किसी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई के बहुत परिपक्व और खुले दिमाग वाला है। बेहद त्रासद और दुर्भाग्यजनक स्थितियों के चलते श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 के बाद का चुनाव नहीं लड़ सकीं, पर मैं कल्पना करता हूं कि अगर वह दर्दनाक हादसा न हुआ होता जिसमें श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु हो गई, तो संभवत: अगला चुनाव जीतने के लिए उन्हें काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती क्योंकि भारतीय मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करने से पहले क्या सोचता है, इस पर निश्चित तौर से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह अपना स्वतंत्र निर्णय लेता है, जिसके बारे में हम शहरों में रहने वाले और ''बी पाजिटिव...'' की रट लगाने वाले लोग सोच भी नहीं सकते। यह आश्चर्यजनक है कि हमारे राजनैतिक और सामाजिक विचार से, जो कि संचार-माध्यमों के रास्ते हम तक पहुंचता है, स्वदेशी गायब होता जा रहा है और दूर बैठा एक देश अपने हाथों में हथियारों का जखीरा पकड़े हमें यह समझा रहा है कि-''बी पाजिटिव, बी अवेयर ऑफ ईरान।'' दरअसल वर्ष 1991 में जब डॉ. मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री बने और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने उन्हें देश के अर्थतंत्र से खेलने की खुली छूट दे दी, उसके बाद आर्थिक और तकनीकी तौर पर भले देश ने पर्याप्त विकास किया हो लेकिन विचार के स्तर पर कहीं हमें बौना और पंगु बना दिया। आरम्भिक वर्षों में हमें इस बात का पता नहीं चला या यह कि उसके होने वाले दुष्परिणामों को हम महसूस नहीं कर सके पर आज यह हमारे पैर में चुभा हुआ ऐसा कांटा है जो अपनी जगह जम गया है। उससे हमें पीड़ा होती है पर हम कराह भी नहीं सकते क्योंकि जैसे ही हम चीखने को होते हैं, मनमोहन सिंह कहते हैं- ''बी पाजिटिव , जी.डी.पी. इज ग्रोईंग।'' सारी विसंगति की जड़ यहीं पर है। करोड़ों हाथों में मोबाईल है, कम्प्यूटर-क्रांति हो गई है, जीवन के ऐसे अनेक छोटे-मोटे काम जिनके लिए हमारा मध्य वर्ग घंटों कतारबध्द खड़ा रहता था, अब घर बैठे उंगलियों के इशारों से होने लगे हैं, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं और भवन खड़े हो रहे हैं पर फिर भी विचार के स्तर पर जो उत्साह हमारे भीतर होना चाहिए, जो आस्था पैदा होनी चाहिए, वह नहीं है और दीपक चोपड़ा जैसे लोग लोकप्रिय हो रहे हैं, चेतन भगत जैसे लोग हमारे मार्गदर्शक बने हुए हैं। विचार के स्तर पर बेहद गरीब ये लोग, परपंरागत रूप से हमारे विचारशील और किसी भी विपरीत स्थिति का माद्दा रखने वाले लोगों को ''पाजिटिव'' बने रहने की सलाह दे रहे हैं। संभवत: इसका एक कारण देश का असंतुलित आर्थिक विकास होना है। जब देश के लगभग बीस प्रतिशत लोगों के पास विकास के सारे साधन सीमित हो जाएंगे, तो शेष समाज के लिए उनके पास कहने को यही रह जाएगा कि हमारी तरह सकारात्मक सोचो तो एक दिन तुम भी हमारी पंक्ति में शामिल हो जाओगे। आस्कर वाईल्ड की एक पंक्ति है कि ''वह इतना गरीब था कि उसके पास सिवाय पैसों के और कुछ भी नहीं था।'' इन बीस प्रतिशत लोगों में से अधिकांश को देखकर मुझे यही पंक्ति याद आती है। व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक सोच का होना, अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण और अच्छी बात है पर यह देखना भी जरूरी है कि यह उपदेश कौन दे रहा है और किसे? पिछले दो दशकों में हमारी आर्थिक नीतियों के चलते समाज में जिस तरह का असंतुलित विकास हुआ है उसे देखते हुए सकारात्मक सोच का मसला बहुत संश्लिष्ट लगता है। मेरा विश्वास है कि व्यापक भारतीय श्रमिक वर्ग और अभावग्रस्त जनता के वे लोग जिन तक विकास की हवा नहीं पहुंची है, एक दिन सड़कों पर उतरेंगे और कहेंगे-''बी पाजिटिव, सब ठीक हो जाएगा, जब तुम अपनी जगह पर अकेले नहीं रहोगे, हम होंगे पंक्ति में कतारबध्द तुमसे पहले, अपने अस्थिपंजरों का इस्तेमाल, हथियारों की तरह करते हुए।''
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Wednesday, 8 February 2012



The lines of a poem of the poet Osip Mndelstam Poland -'' I do not have much money, people in pubs do not like me, tying the broom and angry Maids are chopping wood, soot is the black hand I am planning my shadow and I am disturbing, people at work.''
Mahatma Gandhi in our country from medieval saints, philosophers and sociologists many legendary character of the society - the Dalits Aahir resentment towards the system and backward sections of society seeks to join the mainstream, but in my view, the most important and logical thing, said Dr. Bhimrao Babasaheb Ambedkar. He says -'' to the Dalit community regeneration is not possible unless they gain power and money does not equal participation.'' It's true. Our last two - four - five hundred or even earlier history is witness to the fact that power and money are flowing like a river, on which they are running, everything starts flowing towards him. Even as the various languages ​​and culture. It may seem incredible in itself, but its accuracy can not be ignored completely. There are many contradictions in society created by the truth, the tradition is so deep in mind the impact that can not be completely free. We complicating the situation, our many minorities, the mood is Arurt to understand, most of them are not yet free from the mindset that they never used to be the ruler of this country, their language, their Vshushilp A similar position was proud of their culture - but a person - one vote at all are at par with Rta. No distinction was used to draw them. Same happened to backward classes. Was not used to match them. He accepted his destiny in their own backwardness. Suddenly they realize that their vote as they have such a weapon, the social conflicts that inevitably Arurt. इस बात से उनका आत्मविश्वास बढ़ना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से आत्मविश्वास के साथ ही उनके भीतर अंतर्विरोधों ने भी जगह बनानी शुरू कर दी।
दरअसल बाबा साहेब आम्बेडकर के निधन के बाद लंबे समय तक दलित समाज को अपने भीतर से ही वह नेतृत्व नहीं मिल सका that was required. They stood under a large Vtvriksh Congress. The first sign that leaders like Babu Jagjivan Ram was the same as their identity.
year 1997-98 I was in Nagpur from my meeting with an industrialist named Kumar Kamble (name changed), a slum of the Dalits - the cottage colony lived. They had enthusiasm. He was fond of Akbarnvisi. He wrote in Marathi and some Ripotarj There's a local paper published them. इस प्रकाशन से उनके संपर्क बढ़ गए और जब वे महाराष्ट्र शासन के उद्योग-विभाग और कुछ अन्य संबंधित विभागों में गए तो उन्हें पता चला कि कि भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार की कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनका लाभ उठाकर वे अपना उद्योग शुरू कर सकते हैं . See on sight, all official formalities have been the odds after completing a millionaire, he did not have some kind of deal, which was against the movement of Anna Hazare, I can not say with confidence, but his struggle Those with the right in terms of money, to find a respectable position.
One day he invited me to dinner. I thought that I am at home, but they took me at Nagpur, which is a 'star' was the hotel. In those days, like today, many large Bazaar - there was a glut of big cars. They Anlil Fiat 118 Car. I sat in the back seat of their car with them when the pungent smell of rose perfume filled my nostrils was The four windows on the screen in the car was blue. Had a white towel in his hands he made ​​me sit in my hands. I was numb. I was shocked. I was asking him to put rub in the car so much perfume -'' so that people still smelled from us, we can feel it in their eyes.'' My eyes were wet Arin. His talk was not entirely true or not in the interaction between different sections of society to the fact fiber - fiber can be realized. शताब्दियों की सडांध को कुछ दशकों में धो-पोंछ कर साफ नहीं किया जा सकता क्योंकि ये ाख्म शरीर के ऊपरी हिस्से के नहीं हैं बल्कि मन की भीतरी सतह तक फैले हुए हैं।
पिछले साल नई दिल्ली के एक समाचार साप्ताहिक ने देश के करोड़पति दलित उद्यमियों Kumar Kamble took out a special focus on the missed The issue before me like a good news, but the responses showed that they are painful. I think that our depressed society now an alternative society is trying to break the law. It is Njruri. Smells in the development of a deep Saais. नवउदारवाद में हुआ यह कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योग में अगड़ों के समाज ने सरकारी नियंत्रण से जैसे मुक्ति पा ली और अपना एक अलग संसार रच दिया जिसमें पैसा था, जिसमें ऐश्वर्य था और जिसमें शेष समाज यानि कि वह समाज जिसके पास साधन नहीं थे, उसके प्रति एक तरफ की हीनभावना थी ऐसे में विदर्भ का कोई दलित उद्यमी अगर 'फार्चुन' पत्रिका में करोड़पतियों की सूची देखकर यह सोचता है या कल्पना करता है कि एक दिन इस सूची में उसका नाम भी आएगा तो thinking that this must surely be welcomed. But it does not end here. I think that we have the same education to Dalit upliftment of the society which Macaulay has given us. We made ​​them part of your system. The arrangement of the fingers of steel and not wake up any sense of touch. Macaulay has been teaching us new equation and equation of untouchability were already in our society, the way our middle class, a new 'mix' was built between Anrtvirodon which we are condemned to live. It is our position that we do not believe in him and the trust, he does not say. Mndelstam Osip's own words -'' Shama sat at the Anjadi like to think about, which never is, you wait a little longer with me.'' Tejinderlgagan @ gmail.com
 

Tuesday, 24 January 2012