DESHBANDHU mein aaj prakashit mera column.
जयपुर का साहित्य उत्सव इन दिनों चर्चा में है। सच बात तो यह है कि किसी भी उत्सव में उसके साथ एक तरह की प्रसन्नता का जुड़े होना जरूरी होता है। वह भी अगर लेखन जैसी विधा हो तो और ज्यादा क्योंकि लेखन को अन्य कलाओं से कुछ अलग करके देखा जाता है। दरअसल लेखन को सिर्फ कला के लिए नहीं जाना जा सकता। जो लोग लेखन को सिर्फ कला का माध्यम मानते हैं उनकी समझदारी पर तो सिर्फ संदेह ही किया जा सकता है। लेखन का सीधा संबंध सामान्य जनमानस के दुख और सुख के साथ साझेदारी तो है ही, उसके भीतर मनुष्य को मनुष्य समझने और सामाजिक समरसता की समझ पैदा करने की ताकत भी होनी चाहिए। तभी उस लेखन को सार्थक कहा जा सकता है और अर्थपूर्ण भी। ऐसा नहीं है कि जयपुर के साहित्य उत्सव में जो लेखक भाग ले रहे हैं उनके भीतर यह समझ नहीं है बल्कि उनमें विश्व की अनेक बोलियों और भाषाओं के वे लेखक शामिल हैं जिन पर किसी भी समाज को गर्व हो सकता है। बड़ी संख्या में जयपुर में उपस्थित लेखक गंभीर विचार विमर्श में व्यस्त हैं, पर फिर भी इस अंतर्राष्ट्रीय उत्सव की पृष्ठभूमि पर संदेह क्यों होता है? उत्सव की सबसे बड़ी कमजोरी उसमें हिंदी के उन लेखकों की अनुपस्थिति है जो कि हमारे देश के यथार्थ और समकालीन समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेखकों के इस उत्सव में एक तरह के अभिजात्य का रंग दिखाई देता है और जहां वे बैठते हैं उसके पीछे बैंक ऑफ अमेरिका का बड़ा सा पर्दा दिखाई देता है। यही सब से बड़ा दर्प है। पता नहीं अंग्रेजी का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस बात को कब समझेगा कि भारत में आयोजित किया जाने वाला हर उत्सव तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक कि उसकी जड़ें, भारतीय जनमानस के साथ गहरा रिश्ता न रखती हों। हिन्दी के जिन लेखकों को अभी तक इस उत्सव में भाग लेते हुए सुना है उनमें सिर्फ डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जिन्होंने भक्ति और मध्यकाल पर अपनी महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उन्होंने कहा कि भक्ति की कविता मनुष्य को मनुष्य बनाती है, भक्ति में समर्पण का अर्थ भागीदारी और संवेदना से है, यह सामंत और चाकर का संबंध नहीं है। डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में मध्यकाल हिन्दुस्तान का आधुनिक काल है। मानव-अधिकार एक सभ्य समाज का अधिकार है और उनमें अभिव्यक्ति का अधिकार सबसे बड़ा है।
डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के नाम पर जयपुर साहित्य उत्सव में अशोक चक्रधर हैं जो कि ''खिली बत्तीसी'' का पाठ कर रहे हैं या फिर उनके बरक्स फिल्मी लेखक गुलंजार हैं जो पता नहीं हिन्दी के हैं या नहीं क्योंकि वे स्वयं ही किसी मंच से अपने आप को उर्दू से जोड़ते हैं तो किसी मंच से पंजाबी के साथ, भाषा को छोड़ भी दें तो संवेदना के स्तर पर भी वे मध्य वर्ग के एक सीमित तबके के करीब उसकी तनहाईयों में ही मौजूद रहते हैं।
इस उत्सव में एक की उपस्थिति चर्चा में है तो दूसरे की अनुपस्थिति। अनुपस्थिति से मेरा संकेत 'मिडनाईट चिल्ड्रेन' के प्रख्यात लेखक सलमान रूश्दी से है। मुझे लगता है कि उनकी अनुपस्थिति से इस उत्सव को ज्यादा महत्व और चर्चा मिली है। वैसे यह अपने आप में एक दुखद तथ्य है कि एक जनतांत्रिक देश में जिसमें कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे ज्यादा तरजीह मिलनी चाहिए, हमें एक ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है जो हमारे जीवन-मूल्यों और परम्परा के अनुकूल नहीं है। लेखक की अपनी उपस्थिति का सवाल अगर छोड़ भी दें तो उसकी अनुपस्थिति में उसके लिखे को पढ़ा जाना भी अपराध है, इस बात का आभास होता है जो कि निश्चित ही दुखद है और जिस पर क्षोभ ही व्यक्त किया जा सकता है। फारसी के प्रख्यात लेखक मोहसिन रवानी ने सत्रहवीं सदी में कहा था कि ''हिन्दू वे लोग हैं जो आपस में लगातार विरोध करते रहते हैं और कभी-कभी सहमत भी हो जाते हैं।'' इस बात से यह समझा जा सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी बहुत पुरानी और प्रिय परम्परा है।
इस उत्सव में अपनी उपस्थिति से चर्चा में है- ओप्राह विनफ्रे। ओप्राह का जन्म 29 जनवरी 1954 को कोसेक्सू मिसीसिप्पी में हुआ। उनकी मां अभी अपनी किशोरावस्था में ही थीं और उनका ब्याह भी नहीं हुआ था। वे एक घर में नौकरानी का काम करती थीं जहां उन्हें दैहिक शोषण के अलावा और भी मानसिक प्रताड़नाएं झेलनी पड़ती थीं। ओप्राह भी जब तेरह साल की थीं तो उन्हें एक बाल सुधार गृह में भेज दिया गया। उन्होंने भी अपनी किशोरावस्था में एक बच्चे को जन्म दिया जिसकी बाद में मृत्यु हो गई। एक तकलीफदेह जीवन संघर्ष को पार करते हुए सत्रह वर्ष की उम्र में उन्होंने सौंदर्य प्रतियोगिता में एक महत्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त किया और रेडियो तथा टेलीविान मेें कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगीं जो कि बेहद लोकप्रिय हुए। उनका सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय कार्यक्रम ''द ओप्राहा विनफ्रे शो'' सितम्बर 1985 में आरंभ हुआ जिसने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। इसे भी एक तरह की विसंगति ही कहा जाएगा कि इतने संघर्षशील व्यक्तित्व वाली ओप्राहा विनफ्रे को भी जब हमारा अंग्रोी का मीडिया लोगों के सामने प्रस्तुत करता है तो उसमें अभिजात्य और ग्लैमर का पुट इतना ज्यादा होता है कि किसी व्यक्ति का सारा संघर्ष गौण हो जाता है और जो सामने आता है उसमें सिर्फ एक तरह का धुंधलका होता है। ओप्राहा ने अपने जीवन में जो संघर्ष किया है और आज जिस मुकाम पर वे हैं, निश्चित ही उसकी तारीफ करनी होगी लेकिन सवाल यह है कि हमारे अंग्रेंजी मीडिया को अपने आसपास सब कुछ धुंधला ही क्यों दिखाई देता है। अभी पिछले साल ही सन् 2011 में हिन्दी के वरिष्ठ कवियों बाबा नागार्जुन, सच्चिदानंद, हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' और केदारनाथ अग्रवाल की जन्म शताब्दियां थीं। मुझे नहीं लगता कि हमारे अंग्रेजी के इन प्रस्तुतकर्ताओं ने इन कवियों के नाम भी सुने होंगे। क्या अंग्रेजी के मीडियाकर्मी होने के नाते इनसे इतनी भी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवियों के न केवल नाम उन्हें मालूम हों बल्कि उनकी 'स्टार-वैल्यू' का भी पता हो। और सिर्फ हिन्दी ही क्यों अन्य भाषाओं जिनका समृध्द लेखन उपलब्ध है और जिन्हें पढ़ने वालों की एक बड़ी संख्या है, उन्हें भी अंग्रेजी के समाचारों में शामिल करने में कोई गुरेंज नहीं होना चाहिए। सिर्फ समाचार ही क्यों उन पर अंग्रोी में लघु-फिल्में और वृत्तचित्र भी तैयार करके दिखाए जाने चाहिए।
मेरी स्पष्ट मान्यता के अनुसार, जब तक जयपुर साहित्योत्सव जैसे कार्यक्रम में वामपंथी लेखक संगठनों के लोग शामिल नहीं होंगे तब तक, इस तरह के आयोजन अर्थहीन हैं। साहित्य का अभिजात्य उसके लोकरंग में होता है, विशिष्टता में नहीं, कबीर, तुलसी, मीरा और नानक अगर आज भी सामान्य जनमानस की जुबान पर है तो अपने अर्थ और जीवंतता के नाम पर है, कला और अभिजात्य के कारण नहीं। साहित्य से सरोकार रखने वाले आयोजकों को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए।
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