एक कविता की पंक्तियां हैं- ''वे सब चुप बैठे थेवे चुप बैठे रहने के लिए ही इकट्ठा हुए थेउन्होंने तय किया था कि वेएक-दूसरे के फटे-कपड़ों के बारे में बात नहीं करेंगे
उन्होंने तय किया था कि वे एक दूसरे के खाने के बारे में बात नहीं करेंगेअपने-अपने घरों में वे चाहें कंकड़ खायें और चाहे खाएं कीड़ेवे एक दूसरे के सुख-दु:ख की बात की बात तो बिलकुल नहीं करेंगेवे सिर्फ भली और भोली बातें करेंगेऔर किसी को यह नहीं बताएंगे कि उनके दुख का जिम्मेवाररहस्यमयी व्यक्ति कौन हैऔर फिर अगली मुलाकात तक वे उसी व्यक्ति के साथ रहेंगे जिसके दांत नजर नहीं आते''
सार्क यानि की दक्षेस देशों का सम्मेलन पिछली दस और ग्यारह नवम्बर को मालद्वीव में सम्पन्न हो गया। सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ राज गिलानी को ''भला आदमी'' कहा और बदले में युसुफ राज गिलानी ने भी डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में कुछ अच्छे शब्द कहे। दोनों देशों की आंतरिक स्थिति को देखा जाए तो इन दोनों ही प्रधानमंत्रियों को, उनके इस कठिन समय के दौर में कुछ 'अच्छे' शब्दों की बेहद ारूरत थी। ''मैं तुझे भला कहूं और तू आखि मोय'' की मुद्रा में दो भले लोग अपने-अपने देश के संकटों में लौट आए।
दरअसल, इस उप-महाद्वीप के इतिहास के साथ यह एक विचित्र घटनाक्रम था। दिसम्बर 1985 में सार्क देशों के इस संगठन की स्थापना इस उम्मीद के साथ की गई थी कि इस क्षेत्र की करीब डेढ़ अरब जनता की आवांज को दुनिया में अधिक गंभीरता के साथ सुना जा सकेगा लेकिन इसकी जो पहली शर्त होती है दुर्भाग्य से उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वह यह कि उनकी आवाज का सुर और तर्क एक हो और अपने-अपने देश की व्यापक गरीब जनता के पक्ष में हो। होना यह चाहिए था कि सार्क के सभी देश मिलकर आपसी सामंजस्य से एक ऐसी आर्थिक नीति पर काम करते जिससे अमेरिका और यूरोपीय संघ पर उनकी निर्भरता कम होती। दुर्भाग्य से 1989 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और यह दुनिया एक तरफ झुक गई। संयुक्त राज्य अमेरिका हमारी दुनिया का अघोषित तानाशाह बन बैठा। उसका बाजार दुनिया भर में फैल गया। चीन, कोरिया, जापान आदि की प्रतिद्वंदिता के अलावा विश्व में उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं बचा। इन देशों के समर्पित लेकिन 'बंद' मीडिया ने अपने राष्ट्रों का साथ नहीं दिया। भारत में तो जो मीडिया के द्वार खुले तो ऐसा लगा कि जैसे अमेरिकी बाजार ही यहां आ कर बैठ गया विश्व लोन मेले में अपना बड़ा सा 'शो-रूम' ले कर। सार्क देशों की बैठक में होना यह चाहिए था कि हम अपनी संयुक्त अर्थनीति पर विचार करते और उसके क्रियान्वयन के आंतरिक तरीके ढूंढते। पर इन देशों की निगाहें अपने ऊपर कम और अपने पर्यवेक्षक राष्ट्रों पर अधिक टिकी रहती हैं। सार्क राष्ट्रों के पर्यवेक्षक देश हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीयन संघ के सदस्य राष्ट्र और दक्षिण कोरिया। यह दुखद है कि सार्क देशों का सम्मेलन अपना एक अलग आभिजात्य निर्मित करने का प्रयास भर है, जिसका न कोई उपयोग है और न ही किसी तरह की आवश्यकता। उनका औचित्य तो तब पूरा होगा जब वे एक साथ मिलकर अपने आंतरिक मामलों पर चर्चा करें और इस पूरे उप-महाद्वीप की गरीब जनता के सर्वांगीण विकास के लिए जिसमें अन्न के साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य भी शामिल हों, कोई कारगर रास्ता तलाश करने की कोशिश करें। फिलहाल तो इस सम्मेलन में एक तरह की पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव नार आता है।
श्रीलंका में जिस तरह तमिलों के नागरिक अधिकारों का हनन किया गया, पाकिस्तान द्वारा जिस तरह आतंकवाद को प्रश्रय दिया जा रहा है और भी बहुत सारे ऐसे मसले जिन पर गंभीरतापूर्वक सकारात्मक बातचीत होनी चाहिए, उन पर एक ठंडी बातचीत के साथ, इस तरह के सम्मेलन समाप्त हो जाते हैं और इन सभी सदस्य देशों की गरीब जनता के लाखों रुपए तीस्ता नदी में बह जाते हैं। सम्मेलन के तुरंत बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्र राजपक्षे का सुर बदल जाता है। वे कहते हैं कि चीन हमारा मित्र राष्ट्र है और हम आपसी सहयोग को बढ़ाएंगे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अपने देश में लौट कर सेना-प्रमुख कयानी से मिलते हैं। नेपाल सरकार की विदेश नीति अपने अंर्तविरोधों के चलते कभी इस पक्ष तो कभी उस पक्ष, झुकती हुई नंजर आती है।
यह त्रासद है कि इस पूरे सम्मेलन में पिछले कुछ समय में विश्व में घटित राजनैतिक उथल-पुथल का कोई 'नोटिस' नहीं लिया जाता। यह कहा जा सकता है कि मिस्र या लीबिया में जो हुआ वह उनका अपना आंतरिक मामला था, लेकिन विश्व-राजनीति से अछूते रहकर आप अपना अस्तित्व कैसे बनाए रख सकते हैं? कर्नल गद्दाफी के गोलियों से छलनी मृत शरीर का फोटो अपने आई-पैड पर देखकर खिलखिलाती हुई हिलेरी क्लिंटन का चेहरा मेरी दृष्टि में विश्व का सब से अश्लील चेहरा था। यह माना कि गद्दाफी लंबे समय तक अपनी जनता का विश्वास जीत कर एक क्रूर तानाशाह में बदल गए थे पर इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि एक लंबे समय तक वे अपने देश की अस्मिता की आवाा थे। पर हो यह रहा है कि अमेरीकी मीडिया जो कहता है उसे प्राथमिक शाला के विद्यार्थियों की तरह विकासशील राष्ट्रों का मीडिया जिनमें सार्क के देश भी शामिल हैं, पांचवी कक्षा के पाठ की तरह रटने लगता है।
यह न केवल दुखद है अपितु भयावह भी है, अगर आज इस प्रकृति पर अंकुश न लगाया गया तो आने वाले वर्षों में विश्व को और अधिक खतरनाक रास्तों से होकर गुजरना होगा। आतंकवाद के खतरे में अगर तेल की और पश्चिमी विकसित राष्ट्रों की कोई भूमिका हम नहीं देख सकते तो निश्चित ही यह हमारा दृष्टिदोष होगा। सार्क देशों की बैठक में, जिसकी अफगानिस्तान भी एक सदस्य राष्ट्र है, उसकी राजनैतिक व सामरिक स्थिति के बारे में कोई चर्चा न हो तो यह हमारी भूमिका को संदिग्ध बनाता है।
सिर्फ इस तरह अपनी बैठक खत्म कर देने से बात नहीं बनेगी कि 'जेंटलमैन द काफी वाज गुड।' हमें यह जान लेना चाहिए कि जेन्टलमैन पर्यवेक्षक शरीफ इंसान नहीं है और 'द टेस्ट ऑफ द काफी इज नॉट दैट गुड'। काफी का स्वाद अच्छा नहीं था।
सार्क यानि की दक्षेस देशों का सम्मेलन पिछली दस और ग्यारह नवम्बर को मालद्वीव में सम्पन्न हो गया। सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ राज गिलानी को ''भला आदमी'' कहा और बदले में युसुफ राज गिलानी ने भी डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में कुछ अच्छे शब्द कहे। दोनों देशों की आंतरिक स्थिति को देखा जाए तो इन दोनों ही प्रधानमंत्रियों को, उनके इस कठिन समय के दौर में कुछ 'अच्छे' शब्दों की बेहद ारूरत थी। ''मैं तुझे भला कहूं और तू आखि मोय'' की मुद्रा में दो भले लोग अपने-अपने देश के संकटों में लौट आए।
दरअसल, इस उप-महाद्वीप के इतिहास के साथ यह एक विचित्र घटनाक्रम था। दिसम्बर 1985 में सार्क देशों के इस संगठन की स्थापना इस उम्मीद के साथ की गई थी कि इस क्षेत्र की करीब डेढ़ अरब जनता की आवांज को दुनिया में अधिक गंभीरता के साथ सुना जा सकेगा लेकिन इसकी जो पहली शर्त होती है दुर्भाग्य से उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वह यह कि उनकी आवाज का सुर और तर्क एक हो और अपने-अपने देश की व्यापक गरीब जनता के पक्ष में हो। होना यह चाहिए था कि सार्क के सभी देश मिलकर आपसी सामंजस्य से एक ऐसी आर्थिक नीति पर काम करते जिससे अमेरिका और यूरोपीय संघ पर उनकी निर्भरता कम होती। दुर्भाग्य से 1989 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और यह दुनिया एक तरफ झुक गई। संयुक्त राज्य अमेरिका हमारी दुनिया का अघोषित तानाशाह बन बैठा। उसका बाजार दुनिया भर में फैल गया। चीन, कोरिया, जापान आदि की प्रतिद्वंदिता के अलावा विश्व में उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं बचा। इन देशों के समर्पित लेकिन 'बंद' मीडिया ने अपने राष्ट्रों का साथ नहीं दिया। भारत में तो जो मीडिया के द्वार खुले तो ऐसा लगा कि जैसे अमेरिकी बाजार ही यहां आ कर बैठ गया विश्व लोन मेले में अपना बड़ा सा 'शो-रूम' ले कर। सार्क देशों की बैठक में होना यह चाहिए था कि हम अपनी संयुक्त अर्थनीति पर विचार करते और उसके क्रियान्वयन के आंतरिक तरीके ढूंढते। पर इन देशों की निगाहें अपने ऊपर कम और अपने पर्यवेक्षक राष्ट्रों पर अधिक टिकी रहती हैं। सार्क राष्ट्रों के पर्यवेक्षक देश हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीयन संघ के सदस्य राष्ट्र और दक्षिण कोरिया। यह दुखद है कि सार्क देशों का सम्मेलन अपना एक अलग आभिजात्य निर्मित करने का प्रयास भर है, जिसका न कोई उपयोग है और न ही किसी तरह की आवश्यकता। उनका औचित्य तो तब पूरा होगा जब वे एक साथ मिलकर अपने आंतरिक मामलों पर चर्चा करें और इस पूरे उप-महाद्वीप की गरीब जनता के सर्वांगीण विकास के लिए जिसमें अन्न के साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य भी शामिल हों, कोई कारगर रास्ता तलाश करने की कोशिश करें। फिलहाल तो इस सम्मेलन में एक तरह की पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव नार आता है।
श्रीलंका में जिस तरह तमिलों के नागरिक अधिकारों का हनन किया गया, पाकिस्तान द्वारा जिस तरह आतंकवाद को प्रश्रय दिया जा रहा है और भी बहुत सारे ऐसे मसले जिन पर गंभीरतापूर्वक सकारात्मक बातचीत होनी चाहिए, उन पर एक ठंडी बातचीत के साथ, इस तरह के सम्मेलन समाप्त हो जाते हैं और इन सभी सदस्य देशों की गरीब जनता के लाखों रुपए तीस्ता नदी में बह जाते हैं। सम्मेलन के तुरंत बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्र राजपक्षे का सुर बदल जाता है। वे कहते हैं कि चीन हमारा मित्र राष्ट्र है और हम आपसी सहयोग को बढ़ाएंगे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अपने देश में लौट कर सेना-प्रमुख कयानी से मिलते हैं। नेपाल सरकार की विदेश नीति अपने अंर्तविरोधों के चलते कभी इस पक्ष तो कभी उस पक्ष, झुकती हुई नंजर आती है।
यह त्रासद है कि इस पूरे सम्मेलन में पिछले कुछ समय में विश्व में घटित राजनैतिक उथल-पुथल का कोई 'नोटिस' नहीं लिया जाता। यह कहा जा सकता है कि मिस्र या लीबिया में जो हुआ वह उनका अपना आंतरिक मामला था, लेकिन विश्व-राजनीति से अछूते रहकर आप अपना अस्तित्व कैसे बनाए रख सकते हैं? कर्नल गद्दाफी के गोलियों से छलनी मृत शरीर का फोटो अपने आई-पैड पर देखकर खिलखिलाती हुई हिलेरी क्लिंटन का चेहरा मेरी दृष्टि में विश्व का सब से अश्लील चेहरा था। यह माना कि गद्दाफी लंबे समय तक अपनी जनता का विश्वास जीत कर एक क्रूर तानाशाह में बदल गए थे पर इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि एक लंबे समय तक वे अपने देश की अस्मिता की आवाा थे। पर हो यह रहा है कि अमेरीकी मीडिया जो कहता है उसे प्राथमिक शाला के विद्यार्थियों की तरह विकासशील राष्ट्रों का मीडिया जिनमें सार्क के देश भी शामिल हैं, पांचवी कक्षा के पाठ की तरह रटने लगता है।
यह न केवल दुखद है अपितु भयावह भी है, अगर आज इस प्रकृति पर अंकुश न लगाया गया तो आने वाले वर्षों में विश्व को और अधिक खतरनाक रास्तों से होकर गुजरना होगा। आतंकवाद के खतरे में अगर तेल की और पश्चिमी विकसित राष्ट्रों की कोई भूमिका हम नहीं देख सकते तो निश्चित ही यह हमारा दृष्टिदोष होगा। सार्क देशों की बैठक में, जिसकी अफगानिस्तान भी एक सदस्य राष्ट्र है, उसकी राजनैतिक व सामरिक स्थिति के बारे में कोई चर्चा न हो तो यह हमारी भूमिका को संदिग्ध बनाता है।
सिर्फ इस तरह अपनी बैठक खत्म कर देने से बात नहीं बनेगी कि 'जेंटलमैन द काफी वाज गुड।' हमें यह जान लेना चाहिए कि जेन्टलमैन पर्यवेक्षक शरीफ इंसान नहीं है और 'द टेस्ट ऑफ द काफी इज नॉट दैट गुड'। काफी का स्वाद अच्छा नहीं था।
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