Wednesday 9 November 2011

देशबंधु में प्रकाशित आज का मेरा लेख


प्रख्यात अमेरिकी पाप गायिका लेडी गागा ने पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा के बुध्द इंटरनेशनल सर्किट में हुई फार्मूला-वन कार रेस में जो गीत गाए
उनका आशय कुछ इस तरह था कि 'अपने हाथ ऊपर उठाओ, तुमने इस दुनिया में एक 'सुपरस्टार' की तरह जन्म लिया है और ईश्वर ने तुम्हें अपनी संपूर्णता में तैयार किया है'- सुनने में और पढ़ने में यह पंक्तियां मन को लुभाने वाली लगती हैं। यह आभास भी होता है कि आप डेल कार्नेगी या दीपक चोपड़ा की कोई किताब पढ़ रहे हैं। यह समय शब्दों के छल का समय है। शब्दों के एवज में आप धन कमा रहे हैं। यह वही लेडी गागा हैं जिन्होंने कुछ समय पहिले अपने जिस्म पर बकरे का मीट पहनकर मंच पर भड़कीले गीत गाए थे और लोग पागलपन में झूम उठे थे। लेडी गागा ने स्वयं एक दार्शनिक अंदांज में कहा है कि 'मैं पागलपन की सीमाओं को छू सकती हूं और एक साथ, एक ही समय में, एक सौ स्त्रियों का जीवन जी सकती हूं।' वही पागलपन हमारे देश की एक पूरी पीढ़ी के मन मस्तिष्क पर छा गया है। यह सवाल सिर्फ सांस्कृतिक मूल्यों का नहीं है, उससे आगे का है। संस्कृति के नाम पर पैसा कमाने और फिर लुटाने का गोरखधंधा है। एक ऐसे राज्य में जो कि अपनी गरीबी, अशिक्षा और शर्मनाक वर्ण-व्यवस्था के पोषकों के लिए जाना जाता है, दस अरब के खर्च से तैयार बुध्द इंटरनेशल सर्किट, जो कि गरीब किसानों से ली गई लगभग 875 एकड ज़मीन पर फैला है, में यह आयोजन किया गया जो कि नव-धनाढय वर्ग के अश्लील आभिजात्य प्रदर्शन से अधिक कुछ नहीं था। इसे स्थितियों की एक विडंबना ही कहा जाएगा कि जो लोग विजय मलैया अथवा सुब्रत राय के इस तरह के आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और इसे देश के लिए एक तरह का गौरव मानते हैं, वे ही लोग अन्ना हजारे के लिए रामलीला मैदान में भी पहुंच जाते हैं। हमारा मध्यवर्ग सब्जियों में आलू और प्याज की तरह हो गया है, उसका अपना कोई चरित्र नहीं है। मीडिया का अधिकांश हिस्सा भी उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है क्योंकि यह उसके व्यवसाय के साथ जुड़ा हुआ है। घृणा कोई बुरी चीज नहीं है अगर वह विजय मलैया या सुब्रत राय या शाहरूख खान की जीवन-पध्दति और उनके मूल्यों से की जाए। किसी भी देश के जीवन में जिस तरह प्रतिक्रियावादी ताकतों और सांप्रदायिक शक्तियों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए ठीक उसी तरह भ्रामक स्थितियों के लिए भी कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
एक तरह की विश्वसनीयता चाहे वह अपने राजनैतिक नेतृत्व से हो अथवा गैर-राजनीतिक सामाजिक संगठनों से, हमारा गरीब समाज उसे लगातार खोता चला जा रहा है। एक समय था कि बाबू जगजीवन राम देश के कृषि मंत्री थे। वे अगर सिर्फ दिल्ली के आकाश में बादल देखकर यह कह देते थे कि इस वर्ष मानसून अच्छा आएगा तो तमिलनाडु में कोयम्बटूर से लेकर, गुजरात में भुज और छत्तीसगढ़ में सरगुजा जिले के पटवारी और ग्राम सेवक तक उनकी बात पर भरोसा करते थे और किसानों को बताते थे कि इस वर्ष मानसून अच्छा आएगा। आज स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेकसिंह अहलुवालिया, चीख-चीख कर कह रहे हैं कि- ''हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है'' और हालत यह है कि उनके ''विश्वासी'' कहीं ढूंढे नहीं मिलते। कुछ अकादमिक अर्थशास्त्रियों और विश्व बैंक के कुछ अधिकारियों के अलावा और किसी को उनकी बात पर भरोसा नहीं होता। क्यों? संभवत: इसलिए कि प्रधानमंत्री के विकास के माडल की लोगों के दैनंदिन जीवन में कोई हिस्सेदारी नहीं है।
जब आम आदमी को अपनी जेब में अपना चेहरा छिपाने की जगह न मिल रही हो तो वह दूसरों की जेब में झांकना शुरू कर देता है। शायद वर्तमान पूंजीवादी अर्थतंत्र, जिसने समाजवाद और लोकतंत्र का मुखौटा पहन रखा है, यही चाहता है। इसी प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए फार्मूला वन जैसी कार-रेस प्रतियोगिताओं के आयोजन किए जाते हैं और लेडी गागा जैसी गोश्त का परिधान पहनी गायिकाओं को अमेरिका से बहन मायावती के राज्य तक, गौतमबुध्द नगर तक बुलवाया जाता है। पता नहीं बुध्द इस बार मुस्कुराएं होंगे या नहीं?
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पोषक हमारे राजनेता एक तो कुछ बोलते नहीं, एक रहस्यमयी चुप्पी अपने आस-पास घेरे रखते हैं और जब बोलते हैं तो वे खुद ही सुनते हैं और खुद ही समझते हैं। देश का आम आदमी उनकी भाषा को विश्वसनीय नहीं मानता और उन्हें कोई यह बताने वाला नहीं है कि उनकी यह बात, उन्हें कितनी भारी पड़ने वाली है। यह सेबेस्टियन वेटल की द्रुतगति से चलने वाली कार चलाते हुए कानों में ईयर फोन लगाकर लेडी गागा के गीत सुनने का समय नहीं है।
यह सच है कि प्रतिगामी शक्तियों की तरह अतीतजीवी नहीं होना चाहिए। बार-बार पीछे मुड़कर देखना अच्छी बात नहीं है। अपनी भाषा एवं संस्कृति पर बहुत गर्व होते हुए भी, स्थितप्रज्ञ हो जाना बुरा है और अंतत: बेहतर भविष्य ही हमारा ध्येय है, लेकिन यह बेहतर है क्या? और क्या यह बेहतर सिर्फ कुछ चुनिन्दा लोगों के लिए है? यह देखना और सबको साथ लेकर चलना यह हमारी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी है।
कई बार इस बात का धोखा होता है कि कहीं जहाँगीर के शासनकाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ उनकी शर्तों पर व्यापार का कोई दस्तावेज तो तैयार नहीं किया जा रहा है। देश में एक तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फार्मूला वन कार दौड़ प्रतियोगिता हो रही हो और देश के खेलमंत्री को उसके लिए आमंत्रण तक न भेजा जाए। क्या यह शर्मनाक नहीं है? सच बात तो यह है कि खेल मंत्रालय की अनुमति के बिना यह आयोजन हुआ कैसे? इससे पहले भी हमारे कुछ क्रिकेट खिलाड़ी इस तरह का मजाक कर चुके हैं कि वे राष्ट्रपति से पद्म पुरस्कार लेने नहीं पहुंच सके, क्योंकि वे 'भूल' गए थे। यह एक तरह की धृष्टता है और यह इसलिए आई है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपने आप को लोकतांत्रिक सरकार से ऊपर समझता है। यही धृष्टता हमारे अधिकांश अंग्रोी मीडिया, अखबार और इलेक्ट्रानिक चैनलों द्वारा भी की गई जब इस कार रेस के कवरेज में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती को पूरी तरह से ''ब्लैक-आऊट'' कर दिया गया। अपने आपको लोकतंत्र से ऊपर समझने की प्रवृत्ति कितनी खतरनाक हो सकती है, यह सोच कर डर लगता है। क्या यह अपने आप में अश्लील नहीं है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक आयोजकों को छै: लाख लीटर पेट्रोल सस्ती दरों पर उपलब्ध कराया गया।
अंत में आर्नेस्तो कार्देनाल की एक कविता की पंक्तियां याद आ रही है- ''समोजा नेसमोजा शहर केसमोजा गार्डन मेंसमोजा की प्रतिमा काअनावरण किया।''
tejinder.gagan@gmail.com
 

 

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