रघुवीर सहाय की एक छोटी कविता है, 'रूमाल', जो इस तरह है- ''वह मेरा रूमाल कहां है, कहां रह गया? कहीं मैं उसे छोड़ न आया हूं कुर्सी पर? वह कितना मैला था, उस से मैंने जूता, नाक, पसीना और कलम की निब पोंछी थी।''
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू की बात का संकेत भी इसी रूमाल और इसी निब की तरफ है। आज के परिप्रेक्ष्य में आप निब के साथ कैमरा इन एक्शन जोड़ सकते हैं।
न्यायमूर्ति काटजू इन दिनों मीडिया के कटघरे में हैं। होना इसके विपरीत चाहिए था। जब-जब भी भारतीय मीडिया के आचरण पर कोई टिप्पणी की जाती है पूरा मीडिया एक तरह की चीख पुकार और शोर में तब्दील हो जाता है और ''सेल्फ रेग्युलेशन'' अथवा स्वयंभू अनुशासन की बात कहने लगता है। यह सच है कि मीडिया पर अनुशासन थोपना किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक व्यवस्था में शुभ संकेत नहीं है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मीडिया को व्यापक समाज के प्रति गंभीर और जिम्मेदार होना चाहिए। दिक्कत यह है कि हमारे लगभग सभी बड़े मीडिया घराने उद्योगपतियों द्वारा संचालित हैं और ये उद्योगपति मीडिया की चादर लपेटकर अपने व्यापारिक हित साधने का काम करते हैं। समाज के व्यापक हित की चिंता उन्हें नहीं होती। अधिकतर मीडिया घरानों की राजनैतिक और वैचारिक प्रतिबध्दताएं तक नहीं है- जो राजनैतिक दल उनके नाम परमिट जारी कर दे, वे उसके पाले में जा बैठते हैं। वर्ष 1982 में भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के प्रोफेसर भुवनेश बंधोपाध्याय ने बताया था कि दुनिया भर का मीडिया, दुनिया के सिर्फ दस प्रतिशत लोगों के हाथ में है और वे ही यह तय करते हैं कि शेष नब्बे प्रतिशत जनता को क्या दिखाया जाए, और क्या नहीं। न्यायमूर्ति काटजू ने यही तो कहा कि हमारे इलेक्ट्रानिक चैनलों में समाज का अस्सी प्रतिशत हिस्सा उपेक्षित है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज और उसकी मुख्य चेतना का चेहरा तभी मुकम्मिल होता है जब उसमें हमारे आदिवासी समाज का चेहरा शामिल हो और फिर उसके बाद एक क्रम है, जिसमें दलित है, समाज के पिछड़े वर्गों के अन्य लोग हैं, धार्मिक अल्पसंख्यक हैं और स्त्री हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का पर्दा भारतीय नंजर नहीं आता। यह प्रभावशाली लोगों का माध्यम बन गया है। जो प्रभावशाली लोगों द्वारा ही संचालित है।
दूरदर्शन अपनी एक पक्षीय, ऊबाऊ और लगभग हास्यास्पद रिपोर्टिंग के कारण समाज द्वारा बहिष्कृत है। दूरदर्शन के अधिकारी दिल्ली में मंडी हाउस की ऊंची छत पर खड़े होकर रायसीना हिल्स में शास्त्री भवन की बैरकों से अपने लिए आदेश लेते हैं और स्वयं को दुनिया का सब से बड़ा मीडिया-विशेषज्ञ मानने के लिए अभिशप्त हैं। अपनी पीठ खुद ही लगातार थपथपाकर उनकी पीठ सूज आई है और हाथ टूटने की कगार पर हैं।
एक तरफ आस्था और संस्कार जैसे चैनल हैं जो आज के इस वैज्ञानिक चेतना के समय में दुनिया को माया से दूर रहने का संदेश दे दे कर खूब माया कमा रहे हैं और दूसरी ओर ए.एक्स.एन., ंजूम तथा वी.और एम. जैसे चैनल हैं जो दिखने को तो आस्था और संस्कार चैनलों से अलग दिशा में चलते हैं पर इनका उद्देश्य एक ही है, सिर्फ पैसा-कमाना और इन दोनों ही प्रजातियों के चैनलों का भारतीय श्रमिक वर्ग और भारत के आधुनिक चेतना सम्पन्न वर्ग के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। जिस तरह विश्व के विकसित देश, तीसरी दुनिया के देशों के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं, कुछ-कुछ वैसा ही व्यवहार देश के आर्थिक रूप से उच्च वर्ग द्वारा देश के मध्य व निम्न वर्ग के साथ किया जाता है। इसके लिए वे मीडिया का इस्तेमाल अपने हक में करते हैं। जबकि यह काम मीडिया की आधारमूल मूल्य संरचना के खिलाफ है। टेलीविंजन हमारे सामने जो परोस रहा है उसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच, आदमी तथा औरत के बीच अभिभावकों और बच्चाें के बीच, और भाईयों के बीच जो संबंध दिखाए जा रहे हैं उन सबका आधार व्यवसायिक है, मानवीय नहीं यही समस्या की जड़ है।
अधिकतर कथित पारिवारिक सीरियलों में स्त्री जाति के करवा-चौथी चेहरों को जिस सिंदूर, मंगलसूत्र, माथे पर बड़ी सी बिन्दी और जेवरों से लबरेंज देह में दिखाया जाता है, वह उन्हें वापिस पुरुष की गुलामी में धकेलने जैसा है। यह देश की उन हजारों-लाखों स्त्रियों का अपमान है जो किसी तरह पढ़-लिखकर या गांव-देहातों में, खेतों में शारीरिक श्रम करते हुए अपने पैरों पर खड़े होने का साहस दिखा रही हैं। क्या यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती कि किसी भी सीरियल में कोई भी मुख्य पात्र एक मोची नहीं है, बंजारा नहीं, दलित-स्त्री नहीं है, अल्प-संख्यक नहीं है, ठेले पर आलू-प्याज बेचने वाला नहीं है, घर में बर्तन-झाड़ू पोंछा करने वाली स्त्री नहीं है, पेट्रोल पंप में गाड़ियों में पेट्रोल डालने वाला लड़का नहीं है, बस का कंडक्टर नहीं है, किसी दफ्तर का चपरासी नहीं है, साईकिलों के टायरों की टयूब में पंक्चर लगाने वाला नहीं है। यह हमारा वास्तविक समाज है, जिसका कोई प्रतिनिधित्व हमें किसी चैनल पर नंजर नहीं आता। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इन चैनलों के जो नीति निर्धारक हैं, उनके भीतर 'द्रोणाचार्य माईन्ड सेट' काम करता है, जो समाज के एक बड़े वर्ग को नाकारा मान कर चलता है। हमारे सामाजिक मूल्यों में शारीरिक श्रम के काम को एक तरह की दोयम या हेय दृष्टि के साथ देखा जाता है, शायद इसीलिए हमारे टेलीविजन चैनल अपने पर्दे पर श्रमजीवियों को 'महानायक' का दर्जा नहीं देते जबकि मार्केटिंग जोकर या दलाल उनके आदर्श होते हैं।
भारतीय टेलीविंजन में सब कुछ बिकने के लिए है। एक-एक सेकेण्ड की अपनी कीमत है। सारा खेल बिक्री का है। न्यूज चैनल आने के बाद बिक्री का यह खेल तेज हो गया है। युवा मीडिया विशेषज्ञ वर्तिका नंदा के शब्दों में- ''आम आदमी जिस टेलीविान को अपने घर में बैठ कर देखता है। उसमें सपने, सच और भावनाएं सभी कुछ बिकाऊ है। राजनीति, सेक्स, अपराध, समलैंगिकता सभी शो-पीस की तरह सजे हैं और इन्हें नए पैकेज में ढालकर बार-बार पहिले से भी ऊंचे दाम पर बेच दिया जाता है।''
तो प्रश्न यह है कि न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अगर यह कहते हैं कि हमारे इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का एक सामाजिक दायित्व होना चाहिए और उन्हें देश के जन-सामान्य की उभरती हुई सामाजिक-वैज्ञानिक चेतना का एक हिस्सा बनना चाहिए तो, इसमें गलत क्या है? मीडिया का संचालन एक सामाजिक जिम्मेदारी है और इसे निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता। जो लोग-स्व-नियंत्रण की बात करते हैं उन्हें यह समझना होगा कि अगर देश की संसद, न्यायपालिका और प्रशासन नियमों और मूल्यों के एक दायरे में रहकर काम करने के लिए प्रतिबध्द हैं तो मीडिया को अछूता कैसे छोड़ा जा सकता है। स्व-अंकुश का एक अर्थ निरंकुश होना भी होता है।tejinder.gagan@gmail.com
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