Saturday 15 October 2011

जारी पता नहीं क्यों धीरे धीरे कुछ भी लिखने की इच्छाशक्ति कम होती जा रही है .एक समय था कि मैं इस बात क़ी कल्पना से भी भय खाता था कि लिखने क़ी सार्थकता  के बारे में ही सोचना पड़ेगा .मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो लिखने को एक निजी कर्म समझते हों .मुझे लगता है कि लिखना एक सामाजिक कर्म है .जैसे प्रेमचंद लिखते थे या फिर यशपाल और भीष्म साहनी या हरिशंकर परसाई और मुक्तिबोध.लेकिन पिछले बीस पचीस वर्षों में हमारे देखते ही देखते समय बहुत तेज़ी के साथ बदला है .समय हमारे हाथों से जैसे छूटता ही चला जा रहा है .मैं खूसट बूड़ों क़ी तरह रोना नहीं चाहता पर मैं बहुत उदास हूँ .क्या मैं नए समय को समझ नहीं पा रहा हूँ ?क्या जो मैंने आज तक जीवन में समझा था वहसब गलत था .मुझे लिखना एकाएक निरर्थक सा क्यों लगने लगा है .दरअसल १९९१ के बाद जिस तरह नया अर्थतंत्र आया उसने हमारे सामाजिक रिश्तों को तहस नहस करके रख दिया .इसमें सब कुछ बुरा ही बुरा था या है ऐसा तो नहीं है लेकिन समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को इस परिवर्तन में कोई जगह नहीं मिल सकी.उसे जानबूझकर आँखों से ओझल करने क़ी कोशिश क़ी गयी जो कि संभव नहीं है .आप ज़रा तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया को देखें ,बड़े बड़े अख़बारों को देखें आपको सोने जवाहरात और कारों के विज्ञापनों से भरे नज़र आयेंगे लेकिन कोई एक ऐसी आवाज़ आप नहीं सुन सकेंगे जो उन लोगों की बात करती हो जिनके पास खाने को अन्न नहीं ,पहनने को कपड़ा नहीं ,रहने को छत्त नहीं पर फिर भी वे अपनी लोक धुनों और अपनी बोलिओं के बीच सांस ले रहे हैं .उनकी बात किस अख़बार में छपती है या फिर किस माध्यम में दिखाई जाती है .क्या वे sattalite  आसमान  में ही कहीं टंगे रह जाते हैं जिन में उन के चित्र होते  हैं जिन के पास खाने को अन्न नहीं होता या फिर जो इस धरती पर कई तरह की प्रताड़नाओं के शिकार होते हैं .मुझे लगता है कि यह काम अगर कोई और नहीं कर सकता तो सबसे पहले यह जिम्मेवारी लेखक की बनती है क्योंकि उस के पास विचार है और शब्द हैं .यह मामला सिर्फ तथाकथित रूप से आत्मा और सुकून का नहीं है जिसकी तलाश में हमारा नव धनाड्य मध्य वर्ग रहता है और श्री श्री रविशंकर या उन के जैसे अन्य बाबा जी लोगों की शरण में पलायन करता है. ..........जारी 

2 comments:

  1. shabdo ko shabdon me hi rahna chahiye...bhawon ko smajhna tajurba hai...jeev ka jeev ke sambandhon ka

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  2. main aap ki baat se kaafi had tak sahmat hun.

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