Thursday 12 January 2012

11/1 आज का मेरा अंक

बस्तर पर केन्द्रित दो पुस्तकें मेरे सामने हैं। एक अंग्रेजी में और एक हिन्दी में। 'बस्तर ब्रोंजेंज-ट्राईबल रिलीजन एन्ड आर्ट'- यह पुस्तक अंग्रेंजी में है जिसके लेखक हैं निरंजन महावर और दूसरी पुस्तक का शीर्षक है-

'बस्तर-लाल क्रांति बनाम ग्रीन हंट'। यह पुस्तक कनक तिवारी ने लिखी है। दोनों ही लेखकों का बस्तर से जुड़ाव बहुत गहरा है इसलिए दोनों ही पुस्तकों में बस्तर के आदिवासियों की सृजनात्मकता और जीवन के प्रति उनकी पकड और उनकी शैली को साफ-साफ समझा जा सकता है। कनक तिवारी और निरंजन महावर के जीवन और लेखन का फलक बहुत अलग-अलग होते हुए भी कहीं किसी एक जगह पर समानांतर चलता है। निरंजन महावर बस्तर के आदिवासियों के अतीत और इतिहास की पर्त दर पर्त खोलते चले जाते हैं और अपने पाठकों को भी उसमें बड़ी तन्मयता और शालीनता के साथ शामिल कर लेते हैं जबकि कनक तिवारी बस्तर के आज के यथार्थ और वस्तुस्थिति को पकड़ते हैं। निरंजन महावर एक कवि, पुरातत्ववेदी और इतिहासकार की दृष्टि से बस्तर की सीमाओं में प्रवेश करते हैं जबकि कनक तिवारी सीधे आज की राजनीति से गुत्थमगुत्था होते हैं। कनक तिवारी गुस्से में सवाल पूछते हैं जबकि निरंजन महावर की कलम बहती हुई इन्द्रावती नदी की तरह है। 
आदिवासी संस्कृति को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम उनकी भाषा, उनके अतीत और उनकी पौराणिक कथाओं और संकेतों को समझें। उनके जीवन में आर्थिक मूल्यों के लिए जगह लगभग न के बराबर है, उनके लिए वे वस्तुएं महत्वपूर्ण हैं जो उनके जीवन को परिचालित करती हैं, न कि उन वस्तुओं का मूल्य। आज बस्तर में जो नक्सलवाद की समस्या है, इसकी जड़ उन दिनों में खोजी जानी चाहिए जब बाहर की विस्थापित और नागरी जातियां अपने आर्थिक हितों को साधने, उनके बीच पहुंची। इन गैर-आदिवासी नागरी जातियों के लिए यह एक तरह से अविश्वसनीय भी था और रोमांचक भी। कुबेर का एक बड़ा खजाना उनके हाथों में था जिसके बारे में उस खजाने के मालिक कुछ भी नहीं जानते थे। उनके लिए वह कुबेर का खजाना था ही नहीं, उनके लिए वह जीवन था। उनकी सोच में सागवान का एक पेड़ सिर्फ सागवान का एक पेड़ था, वह किसी ब्राण्ड का नाम नहीं था। वह उनके समुदाय का था किसी एक व्यक्ति का नहीं जहां एक व्यक्ति के पास दस रुपए है तो वह छोटा व्यक्ति हो जाता है और दूसरे व्यक्ति के पास एक सौ रुपए है तो वह बड़ा आदमी बन जाता है। इन तथाकथित बड़े आदमियों का कोई समुदाय नहीं होता, अपने अंतस में वे अकेले ही होते हैं, कहने को भले वे व्यापारी वर्ग के प्रतिनिधि होते हों। हो सकता है यह एक तरह से विषयांतर हो पर इस व्यापारिक मानसिकता का बस्तर की आज की नक्सलवाद की समस्या से सीधा नाता है। मुझे लगता है कि ये दोनों ही पुस्तकें एक दूसरे की पूरक हैं। निरंजन महावर ने गहन संवेदनशीलता के साथ बस्तर के आदिवासियों की पृष्ठभूमि का अध्ययन किया है और हमें यह बताया है कि किस तरह से बस्तर का आदिवासी संसार- अपनी एक पृथक पौराणिक पहचान रखता है। एक तरह से उस समाज का अपना अलग एक 'अस्तित्व' है जिसमें किसी भी दूसरे का हस्तक्षेप वह बर्दाश्त नहीं करता। क्या हमारा नागरी समाज भी यही नहीं करता? हमें अपने आप से यह सवाल पूछना होगा। जिस सहजता से हम यह नारा लगाते हैं कि 'हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, हम सब है आपस मे भाई-भाई'-क्या सचमुच हम वैसे हैं। भारतीय होने के एक धरातल पर ारूर हैं लेकिन हम अपने जीवन-मूल्यों, अपनी वेश-भूषा, अपने रहन-सहन, अपने खान-पान, अपने व्यवसाय, इनमें से किसी भी क्षेत्र में किसी और का हस्तक्षेप कितना बर्दाश्त करते हैं? नहीं करते। जब हम स्वयं अपने समुदाय में किसी और का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करते तो फिर हमें आदिवासियों की जीवन-शैली में हस्तक्षेप करने का अधिकार अंतत: किसने दिया? उनकी इसी जीवन-शैली उनके सृजन, उनके नृत्य, उनकी अपनी शास्त्रीय कलाओं तथा परम्पराओं का विस्तृत और मर्मस्पर्शी चित्रण निरंजन महावर ने अपनी पुस्तक में किया है। कई जगह तो ऐसा लगता है कि जैसे उनकी कलम में एक कैमरे की आंख भी छिपी है। वे देख रहे हैं, और लिख रहे हैं। दोनों काम एक साथ करने की कला को साधना, अपने आप में विलक्षण है। हां, पुस्तक के आरंभिक पृष्ठों में बस्तर की भौगोलिक स्थिति को अद्यतन कर दिया जाता तो अच्छा होता।
दूसरी ओर, श्री कनक तिवारी जो कि पेशे से अधिवक्ता हैं और राजनीति तथा साहित्य में भी उनका दखल है 'बस्तर' से सीधे रूबरू होते हैं। बस्तर के आदिवासियों के जिस विकास की चर्चा की जाती है उसके बारे में कनक तिवारी संविधान-सम्मत बात कहते हैं। ''संविधान में इस बात के आदेश हैं और सुप्रीम कोर्ट ने भी हिदायतें दी हैं कि पांचवी अनुसूची से प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में देश के किसी भी कानून को लागू करने से पहिले यह सुनिश्चित किया जाए कि आदिवासियों के प्राकृतिक, पुश्तैनी और पारंपरिक अधिकारों में कटौती न हो। वहां उद्योग वगैरह स्थापित करने के लिए पहले यह भी देखना ारूरी है कि आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल नहीं किया जाए।'' करीब दो सौ पृष्ठों की यह पुस्तक मोटे तौर पर दो हिस्सों में बंटी हुई है। आरंभ में बस्तर में नक्सलवाद के जन्म से लेकर सलवा जुडूम तक की कथा है जो सत्ता के कुचक्र और बस्तर की विनाश कथा तक की कहानी कहती है तो दूसरा खण्ड जो कि परिशिष्ट के रूप में है में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम-2005 और जन आन्दोलनों की बात करता है। परिशिष्ट में ही प्रख्यात और विवादास्पद लेखिका अरुंधति राय के अंग्रेजी 'आउटलुक' में प्रकाशित बहुचर्चित लेख 'आंतरिक सुरक्षा या युध्द' को भी शामिल किया गया है। (वैसे इसे शामिल न भी किया गया होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता था।) परिशिष्ट में ही डॉ. राममनोहर लोहिया के आलेख 'नक्सलबाड़ी' सहित अन्य सामग्री भी है लेकिन कनक तिवारी ने पुस्तक के इस हिस्से में मुख्यमंत्री के नाम एक खुला खत शामिल किया है जिसमें उठाए गए मुद्दों से असहमत तो हुआ जा सकता है किंतु उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। इसके अलावा दंतेवाड़ा पर भी विशिष्ट सामग्री है, जो कि जरूरी थी।
'बस्तर' को विषयवस्तु बनाकर खुशवंत सिंह और निर्मल वर्मा जैसे नामी-गिरामी लेखक बहुत कुछ लिख चुके हैं। रामशरण जोशी भी अपने विवादास्पद संस्मरणों के बस्तर का संसार और दो किताबें
-तेजिन्दर
बस्तर पर केन्द्रित दो पुस्तकें मेरे सामने हैं। एक अंग्रेजी में और एक हिन्दी में। 'बस्तर ब्रोंजेंज-ट्राईबल रिलीजन एन्ड आर्ट'- यह पुस्तक अंग्रेंजी में है जिसके लेखक हैं निरंजन महावर और दूसरी पुस्तक का शीर्षक है- 'बस्तर-लाल क्रांति बनाम ग्रीन हंट'। यह पुस्तक कनक तिवारी ने लिखी है। दोनों ही लेखकों का बस्तर से जुड़ाव बहुत गहरा है इसलिए दोनों ही पुस्तकों में बस्तर के आदिवासियों की सृजनात्मकता और जीवन के प्रति उनकी पकड और उनकी शैली को साफ-साफ समझा जा सकता है। कनक तिवारी और निरंजन महावर के जीवन और लेखन का फलक बहुत अलग-अलग होते हुए भी कहीं किसी एक जगह पर समानांतर चलता है। निरंजन महावर बस्तर के आदिवासियों के अतीत और इतिहास की पर्त दर पर्त खोलते चले जाते हैं और अपने पाठकों को भी उसमें बड़ी तन्मयता और शालीनता के साथ शामिल कर लेते हैं जबकि कनक तिवारी बस्तर के आज के यथार्थ और वस्तुस्थिति को पकड़ते हैं। निरंजन महावर एक कवि, पुरातत्ववेदी और इतिहासकार की दृष्टि से बस्तर की सीमाओं में प्रवेश करते हैं जबकि कनक तिवारी सीधे आज की राजनीति से गुत्थमगुत्था होते हैं। कनक तिवारी गुस्से में सवाल पूछते हैं जबकि निरंजन महावर की कलम बहती हुई इन्द्रावती नदी की तरह है। 
आदिवासी संस्कृति को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम उनकी भाषा, उनके अतीत और उनकी पौराणिक कथाओं और संकेतों को समझें। उनके जीवन में आर्थिक मूल्यों के लिए जगह लगभग न के बराबर है, उनके लिए वे वस्तुएं महत्वपूर्ण हैं जो उनके जीवन को परिचालित करती हैं, न कि उन वस्तुओं का मूल्य। आज बस्तर में जो नक्सलवाद की समस्या है, इसकी जड़ उन दिनों में खोजी जानी चाहिए जब बाहर की विस्थापित और नागरी जातियां अपने आर्थिक हितों को साधने, उनके बीच पहुंची। इन गैर-आदिवासी नागरी जातियों के लिए यह एक तरह से अविश्वसनीय भी था और रोमांचक भी। कुबेर का एक बड़ा खजाना उनके हाथों में था जिसके बारे में उस खजाने के मालिक कुछ भी नहीं जानते थे। उनके लिए वह कुबेर का खजाना था ही नहीं, उनके लिए वह जीवन था। उनकी सोच में सागवान का एक पेड़ सिर्फ सागवान का एक पेड़ था, वह किसी ब्राण्ड का नाम नहीं था। वह उनके समुदाय का था किसी एक व्यक्ति का नहीं जहां एक व्यक्ति के पास दस रुपए है तो वह छोटा व्यक्ति हो जाता है और दूसरे व्यक्ति के पास एक सौ रुपए है तो वह बड़ा आदमी बन जाता है। इन तथाकथित बड़े आदमियों का कोई समुदाय नहीं होता, अपने अंतस में वे अकेले ही होते हैं, कहने को भले वे व्यापारी वर्ग के प्रतिनिधि होते हों। हो सकता है यह एक तरह से विषयांतर हो पर इस व्यापारिक मानसिकता का बस्तर की आज की नक्सलवाद की समस्या से सीधा नाता है। मुझे लगता है कि ये दोनों ही पुस्तकें एक दूसरे की पूरक हैं। निरंजन महावर ने गहन संवेदनशीलता के साथ बस्तर के आदिवासियों की पृष्ठभूमि का अध्ययन किया है और हमें यह बताया है कि किस तरह से बस्तर का आदिवासी संसार- अपनी एक पृथक पौराणिक पहचान रखता है। एक तरह से उस समाज का अपना अलग एक 'अस्तित्व' है जिसमें किसी भी दूसरे का हस्तक्षेप वह बर्दाश्त नहीं करता। क्या हमारा नागरी समाज भी यही नहीं करता? हमें अपने आप से यह सवाल पूछना होगा। जिस सहजता से हम यह नारा लगाते हैं कि 'हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, हम सब है आपस मे भाई-भाई'-क्या सचमुच हम वैसे हैं। भारतीय होने के एक धरातल पर ारूर हैं लेकिन हम अपने जीवन-मूल्यों, अपनी वेश-भूषा, अपने रहन-सहन, अपने खान-पान, अपने व्यवसाय, इनमें से किसी भी क्षेत्र में किसी और का हस्तक्षेप कितना बर्दाश्त करते हैं? नहीं करते। जब हम स्वयं अपने समुदाय में किसी और का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करते तो फिर हमें आदिवासियों की जीवन-शैली में हस्तक्षेप करने का अधिकार अंतत: किसने दिया? उनकी इसी जीवन-शैली उनके सृजन, उनके नृत्य, उनकी अपनी शास्त्रीय कलाओं तथा परम्पराओं का विस्तृत और मर्मस्पर्शी चित्रण निरंजन महावर ने अपनी पुस्तक में किया है। कई जगह तो ऐसा लगता है कि जैसे उनकी कलम में एक कैमरे की आंख भी छिपी है। वे देख रहे हैं, और लिख रहे हैं। दोनों काम एक साथ करने की कला को साधना, अपने आप में विलक्षण है। हां, पुस्तक के आरंभिक पृष्ठों में बस्तर की भौगोलिक स्थिति को अद्यतन कर दिया जाता तो अच्छा होता।
दूसरी ओर, श्री कनक तिवारी जो कि पेशे से अधिवक्ता हैं और राजनीति तथा साहित्य में भी उनका दखल है 'बस्तर' से सीधे रूबरू होते हैं। बस्तर के आदिवासियों के जिस विकास की चर्चा की जाती है उसके बारे में कनक तिवारी संविधान-सम्मत बात कहते हैं। ''संविधान में इस बात के आदेश हैं और सुप्रीम कोर्ट ने भी हिदायतें दी हैं कि पांचवी अनुसूची से प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में देश के किसी भी कानून को लागू करने से पहिले यह सुनिश्चित किया जाए कि आदिवासियों के प्राकृतिक, पुश्तैनी और पारंपरिक अधिकारों में कटौती न हो। वहां उद्योग वगैरह स्थापित करने के लिए पहले यह भी देखना ारूरी है कि आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल नहीं किया जाए।'' करीब दो सौ पृष्ठों की यह पुस्तक मोटे तौर पर दो हिस्सों में बंटी हुई है। आरंभ में बस्तर में नक्सलवाद के जन्म से लेकर सलवा जुडूम तक की कथा है जो सत्ता के कुचक्र और बस्तर की विनाश कथा तक की कहानी कहती है तो दूसरा खण्ड जो कि परिशिष्ट के रूप में है में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम-2005 और जन आन्दोलनों की बात करता है। परिशिष्ट में ही प्रख्यात और विवादास्पद लेखिका अरुंधति राय के अंग्रेजी 'आउटलुक' में प्रकाशित बहुचर्चित लेख 'आंतरिक सुरक्षा या युध्द' को भी शामिल किया गया है। (वैसे इसे शामिल न भी किया गया होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता था।) परिशिष्ट में ही डॉ. राममनोहर लोहिया के आलेख 'नक्सलबाड़ी' सहित अन्य सामग्री भी है लेकिन कनक तिवारी ने पुस्तक के इस हिस्से में मुख्यमंत्री के नाम एक खुला खत शामिल किया है जिसमें उठाए गए मुद्दों से असहमत तो हुआ जा सकता है किंतु उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। इसके अलावा दंतेवाड़ा पर भी विशिष्ट सामग्री है, जो कि जरूरी थी।
'बस्तर' को विषयवस्तु बनाकर खुशवंत सिंह और निर्मल वर्मा जैसे नामी-गिरामी लेखक बहुत कुछ लिख चुके हैं। रामशरण जोशी भी अपने विवादास्पद संस्मरणों के जरिये अपने अतीत की आग में हाथ जला चुके हैं, लेकिन मेरी अपनी समझ से बस्तर के जीवन को पकड़ने की जो सार्थक कोशिश इन दोनों पुस्तकों में की गई है, वह इससे पूर्व कभी नहीं की गई। 'दंडकारण्य समाचार' के कुछ अंक और सुन्दरलाल त्रिपाठी के कुछ आलेख इसका अपवाद हो सकते हैं।
बस्तर में नक्सलवादी आन्दोलन से निपटने के लिए जो नीति-निर्धारक राजनेता और नौकरशाह हैं उनके लिए इन दोनों पुस्तकों को पढ़ना अनिवार्य भी कर दिया जाए तो यह किसी के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं होगा।
1. पुस्तक का शीर्षक:- बस्तर ब्रोांो ट्राईबल रिलीजन एंड आर्ट
प्रकाशक:- अभिनव प्रकाशन
नई दिल्ली

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