एक कविता की पंक्तियां हैं- ''संकरी सी एक गली है इन उलझे हुए रास्तों के बीच जो मेरे इर्द-गिर्द हैं और मेरे नहीं हैं,
एक रास्ता है जो मेरा होगा और जो अभी खो गया है, जब तक मैं खोज नहीं पाता, मैं अभिशप्त हूं तुम्हारे बिछाये हुए रास्तों पर चलने के लिए मेरे जूते घिस गए हैं, पर एक जोड़ी जूते मैंने छिपा कर रखे हैं, अपने जिस्म में कि, एक दिन मैं उन्हें पहनूंगा, उस रास्ते पर, जिसे सिर्फ मैं खोजूंगा, अपने लिये-'' अभी पिछले दिनों पढ़े-लिखे कुछ युवकों के बीच बैठने का मौका मिला। पढ़े-लिखे इस अर्थ में कि वे आई.आई.टी. कर चुके थे और एम.बी.ए. कर रहे थे या फिर एम.बी.ए.कर चुके थे और कुछ और करने का रास्ता खोज रहे थे। इनमें से कुछ की रुचि विज्ञान के साथ-साथ आध्यात्म में भी थी ''आर्ट ऑफ लिविंग'' का एडवांस्ड कोर्स भी वे कर चुके थे। उनके मस्तिष्क के सारे तार कहीं न कहीं अमेरिका के साथ जाकर जुड़ते थे। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें यह नहीं लगता कि पिछले बीस वर्षों में अमेरिका उनके निजी जीवन का कुछ अधिक ही अतिक्रमण कर रहा है तो उन सबके भीतर जैसे धमाका हो गया। उनके चेहरे इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण थे कि वे मुझमें एक बेहद पिछड़े हुए व्यक्ति के चेहरे को तलाश रहे थे। यह एक सीधा तर्क है कि जिस तरह हमारे जीवन-मूल्यों में जो है, सब अच्छा और अनुसरण करने योग्य नहीं है ठीक उसी तरह अमेरिका के जीवन-मूल्यों में भी सब हरा ही हरा नहीं है, कीचड़ सने कुछ लाल निशान वहां भी हैं। हमें उन्हें मिटाने का काम करना है, और एक सार्थक विकल्प की तलाश करनी है। हमें यह जानने की सख्त ारूरत है कि अपने व्यवसायिक ज्ञान और उपाधियों के अलावा हमारा साक्षर समाज क्या पढ़ रहा है? और हमारे विश्वविद्यालय, हमारे समस्त अकादमिक संस्थान, हमारी सरकारें और हमारे विचारक क्या पढ़ने के लिए मुहैया कराते हैं। यह जो पीढ़ी अंग्रेजी की जासूसी किस्सागोई पढ़ती है या यह जो पीढ़ी जिसे अपने पड़ोस के बच्चों के मानवीय अधिकारों के उल्लंघन की खबर नहीं है लेकिन जिसे भारत से उन्नीस देश दूर किसी अन्य देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में ज्यादा जानकारी है क्योंकि वह सैटेलाईट रास्ते से अमेरिका द्वारा अपने निहित स्वार्थों के कारण या अपने राजनैतिक हितों के चलते बार-बार दुनिया के मीडिया पर दिखलाई जा रही है, उनके बारे में ज्यादा पता है। आखिर हम अपने जनसामान्य की व्यथा-कथा को अपने ही पढ़े-लिखे समाज तक क्यों नहीं पहुंचा पा रहे हैं? क्या कारण है कि हमारा युवा वर्ग अपने ही समाज की व्यथा से इतना कटा हुआ रहता है। ऐसा तो नहीं कि वह संवेदनशील नहीं है पर कहीं न कहीं हमारा नेतृत्व चाहे वह राजनैतिक हो अथवा सामाजिक या अकादमिक, उसकी इस संवेदनशीलता को पकड़ने की जगह उसका अपने हित में इस्तेमाल करना अधिक लाभकारी मानता आया है।
हिन्दी में बडी संख्या में ऐसे लेखक हैं जिन्होंने समाज में आम आदमी की पीड़ा को अपने लेखन का विषय बनाया है और सिर्फ विषय ही नहीं बनाया है बल्कि उसकी पीड़ा के कारणों की तह में जाते हुए, यथार्थपरक तरीके से उन कारणों की पड़ताल भी की है जिनकी वजह से सामाजिक असंतुलन है। ''आई डोन्ट नो व्हाय बट हिन्दी लिटरेचर जस्ट डा नाट इंटरेस्ट मी'' हिन्दी समाज के ही मध्यवर्गीय परिवार के एक लड़के ने मुझ से यह कहा तो मैं अचम्भित रह गया। उसकी दिक्कत यह थी कि उस ने पढ़ा ही नहीं था और वह बिना पढ़े ही यह टिप्पणी कर रहा था। उसकी दूसरी दिक्कत यह थी कि वह कभी हिन्दी प्रदेश के किसी गांव में नहीं रहा, गांव तो दूर की बात है कस्बों और छोटे नगरों तक में नहीं रहा। मैं यह नहीं कहता कि साहित्य की संवेदना को समझने के लिए छोटे कस्बों में रहना किसी तरह की अनिवार्यता है लेकिन जब तक आपके मन में वह संवेदना नहीं होगी आप के लिए किताबों में उस संवेदना को पकड़ पाना असंभव होगा। कोई युवा बीएमडब्ल्यू और मर्सिडींज कार का सपना पालता रहे तो फिर साइकिल चलाते हुए बूढ़े आदमी की तरफ वह उचित सम्मान के साथ नहीं देख सकता। दिक्कत यह है कि एशिया और अफ्रीका के तमाम गरीब देश संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग उपनिवेश बनते जा रहे हैं- चाहे वह अफगानिस्तान हो या श्रीलंका। पर मेरी समझ में यह एक बात नहीं आती कि इन गरीब देशाें की तो एक बड़ी सैन्य-आर्थिक विवशता हो सकती है किंतु भारत जैसे प्रमुख विकासशील राष्ट्र के सामने ऐसी कौन सी विवशता है कि हमने अपनी संस्कृति, अपने पहनावे और खान-पान तक को उनके हवाले कर दिया है। हिन्दी और कुछ अन्य प्रादेशिक भाषाओं जैसे मराठी, बांग्ला, मलयालम, तमिल तथा पंजाबी में अमेरिकी कलावादियों के प्रति विरोध का स्वर सुनाई देता है। हिन्दी में कुछ कथित महान और बड़े कलावादी लेखक हैं जो कि लगभग अपठनीय हैं ारूर पुरस्कृत और सक्रिय हैं लेकिन उनके बरक्स प्र्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और दलित लेखकों का एक बड़ा वर्ग इस कदर सक्रिय है कि कलावादियों के अभिजात्य का शून्य तक डूबता-उभरता चिंतन अपने आप गौण हो जाता है। पर प्रगतिशील चिंतन और लेखन को सामान्यजन तक पहुंचाने की सख्त जरूरत है। चार प्रकाशकों, साढे तीन आलोचकों, तीन विश्वविद्यालयों और दो रद्दी पेपर पर छपने वाले अखबारों के भरोसे यह काम होने वाला नहीं है फिर भले ही गांवों और कस्बों में रहने वाले, अपने कमजोर कंधों पर झोला लटकाये कितने ही कलम के सिपाही, इसके साथ क्यों न हों?
उनके साथ लड़ने के लिए उनके ही अस्त्रों का इस्तेमाल करना होगा, तभी हम अपने लोगों तक पहुंचने का तीसरा रास्ता खोज पाएंगे। यह रास्ता निश्चित ही सृजनशील वैचारिक लेखन से होकर निकलेगा। हिन्दी में एक लंबी फेहरिस्त है, हमारे पास हरिशंकर परसांई, और गजानन माधव मुक्तिबोध की विरासत है। बाबा नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल हैं। इन सब लोगों ने मजदूरों और अन्य श्रमिक वर्गों के जीवन को उनके अंतस तक जाकर पहचाना है और फिर उसे शब्द दिए हैं। मध्यवर्ग की वैचारिक शून्यता और अवसरवादी प्रवृत्तियों को भी समझा है और त्रासदी को भी, इसलिए इनके शब्दों में वह ताकत है जो एक तरह की आस्था पैदा करती है। यह तय है कि अपना रास्ता बनाने के लिए हमें अकेले ही चलना होगा, इस उम्मीद के साथ कि लोग हमारे साथ जुड़ते चले जाएंगे।
यह एक दुखद तथ्य है हिन्दी में लिखा जा रहा आधुनिक साहित्य अपने पाठकों तक पहुंच नहीं पाता। अधिकांशत: पढा-लिखा समाज हिन्दी लेखन के मामले में प्रेमचंद पर आकर अटक जाता है या फिर उसे गुरूवर रविन्द्रनाथ ठाकुर, शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय और अमृता प्रीतम के नाम याद होते हैं, जिनके अनुवाद हिन्दी में जगह-जगह पर उपलब्ध हैं। हिन्दी के प्रकाशकों को अपनी 'मार्केटिंग' की तकनीक निश्चित ही बदलनी होगी अन्यथा खरपतवारों की तरह बढ़ते हुए प्रकाशकों और पुस्तकों का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा।
फ्रांस के प्रख्यात कवि फ्रेंक आंद्रे जाम के शब्दों में - ''शायद तुम ने कभी खुद को खोया न हो? शायद तुम कभी जागे न हो, तब भी तुम्हें गुजरना होगा तलघर से, अकेले-''
tejinder.gagan@gmail.com
हिन्दी में बडी संख्या में ऐसे लेखक हैं जिन्होंने समाज में आम आदमी की पीड़ा को अपने लेखन का विषय बनाया है और सिर्फ विषय ही नहीं बनाया है बल्कि उसकी पीड़ा के कारणों की तह में जाते हुए, यथार्थपरक तरीके से उन कारणों की पड़ताल भी की है जिनकी वजह से सामाजिक असंतुलन है। ''आई डोन्ट नो व्हाय बट हिन्दी लिटरेचर जस्ट डा नाट इंटरेस्ट मी'' हिन्दी समाज के ही मध्यवर्गीय परिवार के एक लड़के ने मुझ से यह कहा तो मैं अचम्भित रह गया। उसकी दिक्कत यह थी कि उस ने पढ़ा ही नहीं था और वह बिना पढ़े ही यह टिप्पणी कर रहा था। उसकी दूसरी दिक्कत यह थी कि वह कभी हिन्दी प्रदेश के किसी गांव में नहीं रहा, गांव तो दूर की बात है कस्बों और छोटे नगरों तक में नहीं रहा। मैं यह नहीं कहता कि साहित्य की संवेदना को समझने के लिए छोटे कस्बों में रहना किसी तरह की अनिवार्यता है लेकिन जब तक आपके मन में वह संवेदना नहीं होगी आप के लिए किताबों में उस संवेदना को पकड़ पाना असंभव होगा। कोई युवा बीएमडब्ल्यू और मर्सिडींज कार का सपना पालता रहे तो फिर साइकिल चलाते हुए बूढ़े आदमी की तरफ वह उचित सम्मान के साथ नहीं देख सकता। दिक्कत यह है कि एशिया और अफ्रीका के तमाम गरीब देश संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग उपनिवेश बनते जा रहे हैं- चाहे वह अफगानिस्तान हो या श्रीलंका। पर मेरी समझ में यह एक बात नहीं आती कि इन गरीब देशाें की तो एक बड़ी सैन्य-आर्थिक विवशता हो सकती है किंतु भारत जैसे प्रमुख विकासशील राष्ट्र के सामने ऐसी कौन सी विवशता है कि हमने अपनी संस्कृति, अपने पहनावे और खान-पान तक को उनके हवाले कर दिया है। हिन्दी और कुछ अन्य प्रादेशिक भाषाओं जैसे मराठी, बांग्ला, मलयालम, तमिल तथा पंजाबी में अमेरिकी कलावादियों के प्रति विरोध का स्वर सुनाई देता है। हिन्दी में कुछ कथित महान और बड़े कलावादी लेखक हैं जो कि लगभग अपठनीय हैं ारूर पुरस्कृत और सक्रिय हैं लेकिन उनके बरक्स प्र्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और दलित लेखकों का एक बड़ा वर्ग इस कदर सक्रिय है कि कलावादियों के अभिजात्य का शून्य तक डूबता-उभरता चिंतन अपने आप गौण हो जाता है। पर प्रगतिशील चिंतन और लेखन को सामान्यजन तक पहुंचाने की सख्त जरूरत है। चार प्रकाशकों, साढे तीन आलोचकों, तीन विश्वविद्यालयों और दो रद्दी पेपर पर छपने वाले अखबारों के भरोसे यह काम होने वाला नहीं है फिर भले ही गांवों और कस्बों में रहने वाले, अपने कमजोर कंधों पर झोला लटकाये कितने ही कलम के सिपाही, इसके साथ क्यों न हों?
उनके साथ लड़ने के लिए उनके ही अस्त्रों का इस्तेमाल करना होगा, तभी हम अपने लोगों तक पहुंचने का तीसरा रास्ता खोज पाएंगे। यह रास्ता निश्चित ही सृजनशील वैचारिक लेखन से होकर निकलेगा। हिन्दी में एक लंबी फेहरिस्त है, हमारे पास हरिशंकर परसांई, और गजानन माधव मुक्तिबोध की विरासत है। बाबा नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल हैं। इन सब लोगों ने मजदूरों और अन्य श्रमिक वर्गों के जीवन को उनके अंतस तक जाकर पहचाना है और फिर उसे शब्द दिए हैं। मध्यवर्ग की वैचारिक शून्यता और अवसरवादी प्रवृत्तियों को भी समझा है और त्रासदी को भी, इसलिए इनके शब्दों में वह ताकत है जो एक तरह की आस्था पैदा करती है। यह तय है कि अपना रास्ता बनाने के लिए हमें अकेले ही चलना होगा, इस उम्मीद के साथ कि लोग हमारे साथ जुड़ते चले जाएंगे।
यह एक दुखद तथ्य है हिन्दी में लिखा जा रहा आधुनिक साहित्य अपने पाठकों तक पहुंच नहीं पाता। अधिकांशत: पढा-लिखा समाज हिन्दी लेखन के मामले में प्रेमचंद पर आकर अटक जाता है या फिर उसे गुरूवर रविन्द्रनाथ ठाकुर, शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय और अमृता प्रीतम के नाम याद होते हैं, जिनके अनुवाद हिन्दी में जगह-जगह पर उपलब्ध हैं। हिन्दी के प्रकाशकों को अपनी 'मार्केटिंग' की तकनीक निश्चित ही बदलनी होगी अन्यथा खरपतवारों की तरह बढ़ते हुए प्रकाशकों और पुस्तकों का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा।
फ्रांस के प्रख्यात कवि फ्रेंक आंद्रे जाम के शब्दों में - ''शायद तुम ने कभी खुद को खोया न हो? शायद तुम कभी जागे न हो, तब भी तुम्हें गुजरना होगा तलघर से, अकेले-''
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