क कविता की पंक्तियां हैं- ''इतिहास यों तो अतीत का एक धुंधला कुंआ होता है, रोशनी के कुछ कण उसके भीतर छिपे रह जाते हैं, जो बार-बार बाहर निकलने की कोशिश करते हैं कि सीधे सूर्य के साथ संवाद बना सकें।'' यह सच है कि मामला चाहे किसी एक व्यक्ति का हो या समाज का अथवा राष्ट्र का, उसका भविष्य उसके 'अतीत के धुंधले कुएं' से जुड़ा हुआ होता है, समय की छलांग लगाने की कला उसे ंजरूर सीखनी होती है। जब हम इतिहास के कुएं के भीतर झांक कर उसके साथ अपने वर्तमान को जोड़ने की कोशिश करते हैं, तो सारा फर्क हमारी दृष्टि का होता है। अगर हम अपनी आंखें बंद करके झांकेंगे तो ााहिर है कि हमेें सिर्फ अंधकार ही नंजर आएगा और हम भविष्य की कल्पना भी अंधकार में ही करने लगेंगे लेकिन अगर हम खुली आंखों से देखने की कोशिश करेेंगे तो संभव है कि इतिहास के इस धुंधले कुएं के भीतर रोशनी के जो कण बाहर निकलने के लिए छटपटा रहे हैं, उन्हें साथ लेकर भविष्य को बेहतर बना सकें। फासिस्ट और अतिवादी ताकतें आरंभ से यही करती आई हैं। वे धुंधलके को अपने पक्ष में करते हैं और फिर उसे महिमामंडित करते हैं। दरअसल इतिहास की तरफ पीछे मुड़कर देखने के लिए समग्रता और व्यापक जीवन-दृष्टि का होना बहुत अहम् है, वर्ना एकपक्षीय निर्णय पर पहुंच जाने का खतरा बना रहता है। एक ही समय में अलग-अलग शक्तियां, अपनी सोच के साथ अलग-अलग दिशाओं में सक्रिय रहती हैं पर अंतत: टिकता वही है जो सच के साथ होता है। वर्ष 1925 और उसके आस-पास के दस बीस वर्षों पर अगर आप निगाह डालें तो देखेंगे कि लगभग उसी समय मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा बनते हैं, उसी समय वर्ष 1925 में हिन्दुवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना होती है। वृहत्तर पंजाब में आर्य समाज और श्री गुरु सिंह सभा की स्थापना होती है। दलित चेतना की अलख जगाने वाले बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर उभर कर आते हैं और मोहम्मद अली जिन्नाह मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की मांग करते हैं। यह सच है कि जिन्नाह की मांग पर अंग्रेजों की कुटिल नीति के चलते देश का विभाजन हो गया और पाकिस्तान एक अलग राष्ट्र बन गया, लेकिन पाकिस्तान की आज जो आंतरिक स्थिति है वह किसी से छिपी हुई नहीं है। आाादी के पैंसठ साल बाद आज भी अगर प्रासंगिकता बची है तो वह गांधी-नेहरू की धर्म निरपेक्ष जीवन-दृष्टि की या फिर बाबा साहेब आम्बेडकर ने जिस तरह दलित और पिछड़ी जातियों को राजनीति और सत्ता के साथ जोड़ने का साहस दिया, उसकी महत्ता को कम करके नहीं आंका जा सकता। वर्ष 2011 का अंत अब निकट है। मेरी दृष्टि में इस वर्ष जो सबसे बड़ा खतरा हमारे ऊपर मंडराता नार आ रहा है वह दक्षिण पंथी ताकतों के उभार का है। इन ताकतों ने सूचना क्रांति के इन उपकरणों को अपने पक्ष में कर लिया है, वे उस गहरे धुंधलके से भरे कुंए के भीतर कहां तक धंसे हैं, इस बात का पता तो आने वाले वर्षों में ही लगेगा। फिलहाल यह भ्रम ारूर है कि सब कुछ इनके हाथों में है। अपने बहु संख्यक होने के प्रति एक तरह का गर्व और दूसरों के अल्पसंख्यक होने पर उनके प्रति हीन होने की भावना, यह एक खतरनाक संकेत है और इसे यहीं, इसी वक्त रोक देने की बेहद ारूरत है। हालांकि एक सच यह भी है कि इस मुखर जनसमुदाय के समक्ष एक बड़ा मौन जनसमुदाय भी है और वह किस करवट बैठेगा उसका अनुमान फिलहाल लगा पाना बड़ा मुश्किल है। दिक्कत यह है कि इतिहास मौन की गवाही को नहीं मानता और यहीं उसकी व्याख्या में चूक हो जाती है। क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि आने वाले समय में अन्ना हंजारे के आन्दोलन के बारे में जब लिखा जाएगा तो वे हजारों लोग तो इसमें शामिल करार दिए जाएंगे जो किसी न किसी रूप से इसमें शामिल थे पर वे करोड़ों लोग जिनका मौन विरोध इस आन्दोलन के विपक्ष में है, उनके नाम कहीं दर्ज नहीं होंगे और फिर जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी, पीठ पीछे इस कथित जनआन्दोलन को ताकत और हवा दे रही है उनकी भूमिका पर अगली पीढ़ियां किस आधार पर उंगली उठा सकेंगी, यह भी देखना होगा। यह अच्छा ही है कि अब उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव घोषित हो गए हैं। यह एक ऐसा अवसर होगा, जिसमें यह जो फिलहाल हमारा मौन जनमानस है, इसकी आवाज सुनने का अवसर पूरे देश को मिलेगा। उत्तर प्रदेश, जहां का चुनाव जनसंख्या के मान से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वहां बहुजन समाज पार्टी की सुश्री मायावती मुख्य रूप से दलितों का और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव-अल्पसंख्यकों और दलितों का और कंाग्रेस के राहुल गांधी और रीटा बहुगुणा तमाम धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ ही दलितों और अल्पसंख्यकों के हितैषी हैं, के बीच ही मतों का विभाजन होना है, इसलिए दक्षिण पंथी भारतीय जनता पार्टी की संभावना बहुत क्षीण नार आती है। पंजाब और उत्तराखंड में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच ही है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी, क्षेत्रीय दल अकाली दल की सहयोगी है। ऐसा लगता है कि अन्ना हाारे का आन्दोलन, इन चुनावों के बाद ही निर्णायक रूप लेगा। दिक्कत यह है कि अन्ना के आन्दोलन को किसी भी रूप में एक शुध्दतावादी आन्दोलन नहीं कहा जा सकता- इसका स्वरूप राजनैतिक है- भारतीय जनता पार्टी के लालकृष्ण आडवानी इस आन्दोलन के पिछले रास्ते से सत्ता की कुर्सी पर आंखें गड़ाए हैं, इससे पहले वे अयोध्या आन्दोलन में भी ऐसा कर चुके हैं। हमारे सामने दो उदाहरण हैं जहां जन-आन्दोलनों में अपने उद्देश्य को शुध्द और साफ रखा गया। मेधा पाटकर का नर्मदा बचाओ आन्दोलन और सुन्दरलाल बहुगुणा का चिपको आन्दोलन। इनका रास्ता सत्ता की तरफ नहीं जाता था, दुखद है लेकिन सच है कि इसलिए वे लगभग अप्रासंगिक हो गए। ब्राउन विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक आशुतोष वार्र्ष्णेय के शब्दों में ''भारत में आथिक सुधारों से पैदा हुई ताकतें अब राजनीति के पुराने ढांचे से टकरा रही है, मध्य-वर्ग की संख्या में आगे और बढ़ोतरी ही होनी है इसलिए मध्यवर्ग उनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो गया है।'' संभवत: इसीलिए हमारे सारे राजनैतिक दल मध्यवर्ग के आस-पास भिनभिना रहे हैं, पर ओड़िया कवि हरप्रसाद दास के शब्दों में- ''इतिहास में कहीं न कहीं, एक खाली जगह ारूर होती है, जहां पर थकान से लस्त घोड़े, पानी पीते हैं, जहां पर भांजी जाती है रक्त से सनी तलवार, जहां पर कोई राजा, पराजय के उजाड़ से उठाकर, अपना अवश लंबा हाथ सुला देता है, रास्ते सा बिछाकर।'' फिर कोई खाली जगह नहीं रहती। tejinder.gagan@gmail.com | |
Tuesday, 3 January 2012
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